Tuesday, May 31, 2022

विश्व वन स्थिति रिपोर्ट 2021 - 22 (समीक्षा)




@FAO

हाल ही में, खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) ने ‘विश्व वन स्थिति रिपोर्ट-2022’ जारी की। इसके अनुसार, विगत 30 वर्षों में विश्व के कुल वन क्षेत्रफल में अभूतपूर्व कमी दर्ज की गई है। यह रिपोर्ट 15वीं विश्व वानिकी कांग्रेस के दौरान जारी की गई है।


रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष : 

  • इसके अनुसार निर्वनीकरण के कारण वर्ष 1990 से 2020 के बीच 420 मिलियन हेक्टेयर (mha) वन नष्ट हो गए हैं, जो कुल वन क्षेत्र का लगभग 10.34% है। हालाँकि, पृथ्वी के भौगोलिक क्षेत्र के 4.06 बिलियन हेक्टेयर (31%) पर वनाच्छादन है।

  • हालाँकि, निर्वनीकरण की दर में गिरावट दर्ज होने के बावजूद वर्ष 2015 से 2020 के बीच प्रति वर्ष 10 mha वन नष्ट हुए है। वर्ष 2000 से 2020 के बीच लगभग 47 mha प्राथमिक वन नष्ट हुए है। 

  • उल्लेखनीय है कि 700 mha से अधिक वन (कुल वन क्षेत्र का 18%) कानूनी रूप से स्थापित संरक्षित क्षेत्रों में है। फिर भी, निर्वनीकरण और वन क्षरण के कारण वन जैव विविधता खतरे में है।


प्रभाव  -

कार्बन उत्सर्जन:
  • किसी अतिरिक्त कार्रवाई या प्रयास के अभाव में वर्ष 2016 से 2050 के बीच केवल उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में ही 289 mha जंगलों की कटाई की संभावना है, जिसके परिणामस्वरूप 169 गीगाटन कार्बनडाई ऑक्साइड समतुल्य (GtCO2e) का उत्सर्जन होगा।

  • कोविड-19 के बाद अतिरिक्त 124 मिलियन लोग अत्यधिक गरीबी का शिकार हो गए हैं, जिससे कुछ देशों में लकड़ी आधारित ईंधन के उपयोग में वृद्धि हुई है। इसका प्रभाव दीर्घकालिक हो सकता है।

  • रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2025 तक उप-सहारा अफ्रीका में लगभग एक बिलियन लोग ईंधन के प्रदूषणकारी स्रोत, जैसे- चारकोल और लकड़ी पर निर्भर होंगे


संक्रामक रोगों का कारण :
  • वर्तमान रिपोर्ट के अनुसार, 250 उभरते संक्रामक रोगों में से 15% को वनों से जोड़ा गया है। साथ ही, वर्ष 1960 के बाद से रिपोर्ट की गई 30 प्रतिशत नई बीमारियों के लिये निर्वनीकरण और भूमि उपयोग में परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

  • निर्वनीकरण (विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में) डेंगू और मलेरिया जैसे संक्रामक रोगों में वृद्धि के साथ जुड़ा हुआ है।

  • महामारी को रोकने के उद्देश्य से अवैध वन्यजीव व्यापार को कम करने, भूमि उपयोग में बदलाव से बचने और निगरानी बढ़ाने से वैश्विक रणनीतियों की लागत $22 बिलियन से $31 बिलियन हो गई है।


प्राकृतिक संसाधन एवं भोजन की मांग में वृद्धि :
  • वर्ष 2050 तक विश्व की जनसंख्या 9.7 बिलियन तक पहुंच सकती है, जिससे भोजन की मांग 35 से 56% तक बढ़ जाएगी और भूमि के लिये प्रतिस्पर्धा में वृद्धि होगी।

  • संयुक्त रूप से सभी प्राकृतिक संसाधनों की वार्षिक वैश्विक खपत वर्ष 2017 में 92 बिलियन टन से बढ़कर वर्ष 2060 में 190 बिलियन टन होने का अनुमान है।

  • वर्ष 2017 में 24 बिलियन टन की अपेक्षा वर्ष 2060 तक वार्षिक बायोमास निष्कर्षण 44 बिलियन टन तक पहुंचने की उम्मीद है। मुख्य रूप से निर्माण और पैकेजिंग के कारण वन-आधारित बायोमास की मांग में और अधिक वृद्धि होने की संभावना है।



सुझाव :

  • इसमें हरित सुधार (Green Recovery) प्राप्त करने और पर्यावरणीय संकटों से निपटने के लिये तीन मार्ग भी प्रस्तुत किये गए हैं।

  • रिपोर्ट में वनों और भूमि उपयोग पर ग्लासगो घोषणा की पृष्ठभूमि में जलवायु परिवर्तन एवं जैव विविधता हानि सहित हरित पुनर्प्राप्ति (Green Recovery) और पर्यावरणीय संकटों से निपटने के लिये तीन परस्पर संबंधित मार्गों का सुझाव दिया गया है :

    • वनों की कटाई को रोकना और वनों का अनुरक्षण

    • निम्नीकृत भूमि की पुनर्बहाली और कृषि वानिकी का विस्तार 

    • वनों का सतत तरीके से उपयोग और हरित मूल्य श्रृंखला का निर्माण

  • वनरोपण और पुनर्वनीकरण के माध्यम से निम्नीकृत भूमि की पुनर्बहाली द्वारा वर्ष 2020 से वर्ष 2050 के बीच 0.9 से 1.5 गीगाटन कार्बनडाई ऑक्साइड समतुल्य को वातावरण से प्रतिवर्ष प्रभावी ढंग से बाहर निकाला जा सकता है।



वन और भूमि उपयोग पर ग्लासगो नेताओं की घोषणा :

  • इसके माध्यम से 140 से अधिक देशों ने वर्ष 2030 तक वन की क्षति को समाप्त करने और पुनर्बहाली व धारणीय वानिकी का समर्थन करने का संकल्प लिया है।

  • इन उद्देश्यों की प्राप्ति में मदद करने के लिये विकासशील देशों को अतिरिक्त 19 बिलियन डॉलर का आवंटन किया गया है।

Saturday, May 28, 2022

कोयला गैसीकरण ( Coal Gasification ) (समीक्षा)

@wci

भारत को ऊर्जा के लिहाज से स्वतंत्र बनाने में सहायता के लिए , कोयला मंत्रालय ने कोयला गैसीकरण के लिए राजस्व साझाकरण में 50 प्रतिशत रियायत को स्वीकृति दे दी है ।

कोयला गैसीकरण को समर्थन और रियायती दर पर क्षेत्र को कोयला उपलब्ध कराने के क्रम में , कोयला मंत्रालय ने कोयला ब्लॉकों की नीलामी के लिए राजस्व साझेदारी में 50 प्रतिशत रियायत के लिए एक नीति पेश की है । जिसके अनुसार अगर सफल बोलीदाता निकाले गए कोयले का या तो अपने संयंत्र या अपनी होल्डिंग , सहायक कंपनियों में कोयले के गैसीकरण या द्रवीकरण में उपयोग करती है या सालाना आधार पर कोयले के गैसीकरण या द्रवीकरण के लिए कोयले को बेचती है तो बोलीदाता रियायत का पात्र होगा । हालांकि , यह उस साल के लिए स्वीकृत खनन योजना के तहत निर्धारित कोयला उत्पादन का कम से 10 प्रति गैसीकरण या द्रवीकरण के लिए उपभोग करने या बेचने की शर्तों से बंधा रहेगा ।


'कोयला गैसीकरण' :
  • ' कोयला गैसीकरण ' ( Coal Gasification ) को कोयला जलाने की तुलना में स्वच्छ विकल्प माना जाता है । कोयला गैसीकरण , कोयले को संश्लेषित गैस ( Synthesis Gas ) - सिनगैस ( syngas ) में परिवर्तित करने की प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया में कार्बन मोनोऑक्साइड ( CO ) , हाइड्रोजन ( H2 ) , कार्बन डाइऑक्साइड ( CO2 ) , प्राकृतिक गैस ( CH4 ) , और जल वाष्प ( H2O ) के मिश्रण से सिनगैस का निर्माण लिया जाता है ।


प्रक्रिया :
  • गैसीकरण से कोयले की रासायनिक विशेषताओं के उपयोग की सहूलियत मिलती है ।

  • गैसीकरण के दौरान , कोयले को उच्च दबाब पर गर्म करते हुए ऑक्सीजन तथा भाप के साथ मिश्रित किया जाता है । 

  • इस अभिक्रिया के दौरान , ऑक्सीजन और जल के अणु कोयले का ऑक्सीकरण करते हैं और सिनगैस का निर्माण करते हैं । 


गैसीकरण के लाभ :
  • गैस का परिवहन , कोयले के परिवहन की तुलना में बहुत सस्ता होता है ।

  • स्थानीय प्रदूषण समस्याओं का समाधान करने में सहायक होता है ।

  • गैसीकरण , पारंपरिक कोयला दहन की तुलना में अधिक दक्ष होता है क्योंकि इसमें गैसों का प्रभावी ढंग से दो बार उपयोग किया जा सकता है ।


चिंताएँ और चुनौतियाँ :
  • कोयला गैसीकरण ऊर्जा उत्पादन के अधिक जल- गहन रूपों में से एक है । 

  • कोयला गैसीकरण से जल संदूषण , भूमि - धसान तथा अपशिष्ट जल के सुरक्षित निपटान आदि के बारे में चिंताएं उत्पन्न होती हैं । 


भारत की कोयले पर निर्भरता :
  • भारत वर्तमान में , कोयले का दूसरा सबसे बड़ा आयातक , उपभोक्ता और उत्पादक देश है , और इसके पास दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कोयला भंडार है । 

  • यह मुख्य रूप से इंडोनेशिया , ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका से कोयले का आयात करता है । 


कोयला क्षेत्र में किए गए हालिया सुधार :
  • कोयले के वाणिज्यिक खनन को अनुमति प्रदान की गयी है , जिसके तहत निजी क्षेत्र को 50 ब्लॉक की पेशकश की जाएगी । 

  • बिजली संयंत्रों को " प्रक्षालित / धुला हुआ " कोयले का उपयोग करने की अनिवार्यता संबंधी विनियमन को हटा कर ' प्रवेश मानदंडों को उदार बनाया जाएगा ।

  • निजी कंपनियों को निश्चित लागत के स्थान पर राजस्व बंटवारे के आधार पर कोयला ब्लॉकों की पेशकश की जाएगी ।

  • कोल इंडिया की कोयला खदानों से ' कोल बेड मीथेन ( CBM ) निष्कर्षण अधिकार नीलाम किए जाएंगे ।

Wednesday, May 25, 2022

Pockets of hope, linking nature and humanity (Critical Analysis)

@UNO


The United Nations has proclaimed May 22 The International Day for Biological Diversity (IDB) to increase understanding and awareness of biodiversity issues. The theme, for this year, is Building a Shared Future For All Life. The theme supports the post-2020 global biodiversity framework to be adopted at the upcoming Biodiversity Conference.

In December 2000, the UN General Assembly adopted 22 May as IDB, to commemorate the adoption of the text of the Convention on 22 May 1992 by the Nairobi Final Act of the Conference for the Adoption of the Agreed Text of the Convention on Biological Diversity.

According to the Global Assessment Report on Biodiversity and Ecosystem Services released in 2019 by the Intergovernmental Science- Policy Platform on Biodiversity and Ecosystem Services (IPBES) at the UNESCO headquarters in Paris, the main global drivers of biodiversity loss are climate change, invasive species, over-exploitation of natural resources, pollution and urbanisation.


The earth is under strain : 

  • This trend needs to be readdressed, with cleaner air, high quality drinking water, and enough food and healthy habitats to ensure that ecosystem services continue to benefit humanity without critically affecting nature’s balance.

  • Whether we look at nature from an environmental point of view, from a cultural or even from a religious point of view, it is our responsibility and clearly in our interest to respect the environment.

  • In fact, the possibilities exist, and all is not lost.

  • In the last 50 years or so, much has been accomplished for the protection of nature, including the establishment of conservation areas, and a number of international conventions have been signed and ratified.


Biosphere reserves are key :  

  • One of the best mechanisms that has been created is the World Network of Biosphere Reserves, created in 1971 by UNESCO.

  • Biosphere reserves are places where humans live in harmony with nature, and where there is an effective combination of sustainable development and nature conservation.

  • They represent pockets of hope and proof that we are not inexorably headed towards a doomsday ecological scenario, provided we take appropriate action.

  • In South Asia, over 30 biosphere reserves have been established.

  • The first one was the Hurulu Biosphere Reserve in Sri Lanka, which was designated in 1977 and comprises 25,500 hectares within the tropical dry evergreen forest.

  • In India, the first biosphere reserve was designated by UNESCO in 2000 within the blue mountains of the Nilgiris.

  • It stretches across the States of Tamilnadu, Karnataka and Kerala.

  • The network has gone from strength to strength, and it now counts 12 sites, with Panna, in the State of Madhya Pradesh, as the latest inscription in 2020.

  • We need many more biosphere reserves and pockets of hope, and the region offers countless options.


Diverse Systems :

  • South Asia has a very diverse set of ecosystems.

  • To begin with, Bhutan, India and Nepal combined have thousands of glaciers, surrounded by lakes.

  • The Khangchenzanga Biosphere Reserve, established in 2018, is a good model.

  • It includes some of the highest ecosystems in the world, with elevations up to 8,586 metres.

  • The reserve is home to orchids and rare plant species.

  • At the same time, more than 35,000 people live there.

  • Their main economic activities are crop production, animal husbandry, fishing, dairy products and poultry farming.

  • Bangladesh, India, the Maldives, and Sri Lanka all have extensive coastlines, with coral reefs and mangrove forests.

  • These areas are exposed to extreme weather events (storms, floods, droughts), and sea-level rise.

  • The Maldives are recognised as the lowest- lying country in the world, with a mere elevation of 1.5 metres above the high tide mark.

  • Together with UNESCO, the archipelago has embarked on a plan to establish pilot sites for the conservation and restoration of coastal ecosystems, and to enhance the population’s knowledge on climate change adaptation.

  • Separately, three biosphere reserves have already been created in the Maldives.


Science based plans : 

  • UNESCO Biosphere Reserves have all developed science-based management plans, where local solutions for sustainable human living and nature conservation are being tested and best practices applied.

  • Issues of concern include biodiversity, clean energy, climate, environmental education, and water and waste management, supported by scientific research and monitoring.

  • The aim is to detect changes and find solutions to increase climate resilience.

  • All biosphere reserves are internationally recognised sites on land, at the coast, or in the oceans.

  • Governments alone decide which areas to nominate.

  • Before approval by UNESCO, the sites are externally examined.

  • If approved, they will be managed based on an agreed plan, reinforced by routine checks to ensure credibility, but all remain under the sovereignty of their national government.

  • Some of the countries in South Asia do not yet have any or enough biosphere reserves.

  • In most if not all cases, the political will is certainly there but there is a lack of know-how and financial resources.

  • Of course, more financial support from richer nations and from the private sector would be desirable for establishing biosphere reserves in these countries.


Priority countries :

  • Bangladesh, Bhutan, and Nepal are on the priority list of UNESCO, because they do not yet have any biosphere reserves.

  • Their governments are already working on their first nomination files.

  • Our Organisation also believes that it would be important to increase the number of biosphere reserves in India, the Maldives and Sri Lanka.

  • The point is that if these pockets of hope can expand, with at least one biosphere reserve per country, and with more and larger sites covering the terrestrial surface, including coastal areas with their offshore islands, it will give the realisation to millions of people that a better future is truly possible, one where we can truly live in harmony with nature.

  • On May 22 and on the occasion of the International Day for Biological Diversity, let us do what is right.

  • Now is the time to act for biodiversity.

Sunday, May 22, 2022

हिंद महासागर में जुड़वा चक्रवात (समीक्षा)

@thehindu

हाल ही में, हिंद महासागर क्षेत्र में एक साथ दो चक्रवातों असानी (Asani) और करीम (karim) का निर्माण हुआ है, जो क्रमशः उत्तरी गोलार्द्ध और दक्षिणी गोलार्द्ध में निर्मित हुए हैं। जैसा कि यह विदित है कि ये चक्रवात एक ही देशांतर में उत्पन्न होने वाले जुड़वां चक्रवात हैं। बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न होने वाला असानी चक्रवात का नाम श्रीलंका द्वारा प्रदान किया गया है, जबकि करीम चक्रवात दक्षिणी हिंद महासागर में उत्पन्न हुआ है।



क्या है जुड़वां चक्रवात 

  • जुड़वां चक्रवात कोई दुर्लभ घटना नहीं हैं। विदित है कि वायु और मानसून प्रणाली की परस्पर क्रिया पृथ्वी प्रणाली के साथ मिलकर इन समकालिक चक्रवातों का निर्माण करती है। जुड़वां उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति भूमध्यरेखीय रॉस्बी तरंगों के कारण होती हैं।



रॉस्बी तरंगें : 

  • रॉस्बी तरंगें समुद्र में लगभग 4,000-5,000 किलोमीटर की तरंगदैर्ध्य के साथ उत्पन्न होने वाली विशाल लहरें हैं।

  • इस प्रणाली में उत्तरी गोलार्द्ध में निर्मित चक्रवात और दक्षिणी गोलार्द्ध में निर्मित चक्रवात एक - दूसरे की दर्पण छवि के समान होता है।

  • उत्तर में निर्मित चक्रवात वामावर्त (counter clockwise) घूमता है और एक सकारात्मक स्पिन निर्मित होता है, जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में चक्रवात दक्षिणावर्त दिशा (clockwise) में घूमता है और इसलिये एक नकारात्मक स्पिन निर्मित होता है। 

  • रॉस्बी तरंगों का नाम प्रसिद्ध मौसम विज्ञानी कार्ल-गुस्ताफ रॉस्बी के नाम पर रखा गया है। इन्होंने सर्वप्रथम यह बताया कि ये तरंगें पृथ्वी के घूमने के कारण उत्पन्न होती है।




मैडेन-जूलियन ऑसिलेशन (Madden-Julian Oscillation : MJO)

  • यह वर्षा को प्रभावित करने वाला एक कारक है जो चक्रवात के निर्माण में सहायक होता है। यह एक प्रकार की तरंग संरचना है जिसे मुख्य रूप से समुद्र में देखा जाता हैं।

  • एम.जे.ओ. बादलों और संवहन तंत्र का एक बड़ा समूह है, जिसका आकार लगभग 5000-10,000 किलोमीटर होता है। इसका निर्माण रॉस्बी तरंग और केल्विन तरंग के कारण होता है।  

  • हालांकि, सभी उष्णकटिबंधीय चक्रवात एम.जे.ओ. से उत्पन्न नहीं होते हैं। कभी-कभी यह केवल रॉस्बी तरंग के कारण ही उत्पन्न होते हैं।




उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति : 

  • उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति महासागरों पर होती है और ये तटीय क्षेत्रों की ओर गतिमान होते हैं।

  • इनकी उत्पत्ति एवं विकास के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ है------

  • बृहद समुद्री सतह;

  • जहाँ तापमान 27° सेल्सियस से अधिक हो;

  • कोरिआलिस बल का होना;

  • उर्ध्वाधर पवनों की गति में अंतर कम होना;

  • कमजोर निम्न दाब क्षेत्र या निम्न स्तर का चक्रवातीय परिसंचरण का होना;

  • समुद्री तंत्र पर ऊपरी अपसरण।

  • जब गर्म और शुष्क वायु ऊपर उठती है और समुद्र की सतह से दूर जाती है, तो निम्न वायुदाब का क्षेत्र उत्पन्न होता है। यह आसपास के क्षेत्रों से वायु को उच्च दबाव वाले क्षेत्र से कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर ले जाने का कारण बनता है।


जैसे ही गर्म एवं नम वायु ऊपर उठती है और ठंडी होती है तो वायु में उपस्थित पानी बादल बनाता है। इस प्रकार, चक्रवातों को अधिक विध्वंसक करने वाली ऊर्जा संघनन प्रक्रिया द्वारा ऊँचे कपासी स्तर मेघों से प्राप्त होती है, जो इस चक्रवात के केंद्र को घेरे होती है। महासागरों से लगातार आर्द्रता की आपूर्ति के कारण ये चक्रवात अधिक प्रबल हो जाते हैं। स्थल पर पहुँचकर आर्द्रता की आपूर्ति रुक जाती है, जिससे ये तूफ़ान क्षीण हो जाते हैं।

विदित है कि पृथ्वी के 5° उत्तर और 5° दक्षिण अक्षांशों के बीच भूमध्यरेखीय बेल्ट में कोरिओलिस बल की उपस्थिति नगण्य होती है, फलतः इस क्षेत्र में चक्रवाती तंत्र विकसित नहीं होते हैं।

Thursday, May 19, 2022

क्युराइल द्वीप विवाद (समीक्षा)

@wikipedia

हाल ही में, जापान ने अपनी ‘कूटनीतिक ब्लूबुक’ के नए संस्करण में क्यूराइल द्वीप समूह को रूस के ‘अवैध कब्जे’ के तहत वर्णित किया है। लगभग दो दशकों में यह पहली बार है जब जापान ने क्यूराइल द्वीप समूह विवाद का वर्णन करने के लिये इस वाक्यांश का उपयोग किया है। 


क्यूराइल द्वीप समूह :

रूस के साखालिन ओब्लास्त (प्रान्त) में स्थित एक ज्वालामुखीय द्वीपसमूह है। यह जापान के होक्काइदो द्वीप से रूस के कमचटका प्रायद्वीप के दक्षिणी छोर तक लगभग 1300 किमी (810 मील) तक फैला है। कुरील द्वीपों की पूर्वी तरफ़ उत्तरी प्रशांत महासागर और पश्चिमी तरफ़ ओख़ोत्स्क सागर है। इस समूह में 56 द्वीप और कई अन्य छोटी समुद्र की सतह से ऊपर उठने वाली पत्थर की चट्टानें हैं।

  •  ये चार द्वीपों का एक समूह है जिस पर रूस और जापान दोनों देश अपनी संप्रभुता का दावा करते हैं।जापान अभी भी कुरील के चार सब से दक्षिणी द्वीपों को अपना क्षेत्र बताता है। ये चार कुनाशीर, इतुरूप, शिकोतान और हबोमाए हैं। इनमें से हबोमाए वास्तव में केवल चट्टानों का एक समूह है। रूस जापान की इन मांगों को ग़लत बताता है और इन द्वीपों को अपना हिस्सा बताता है।

  • हालाँकि, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ये द्वीप रूसी नियंत्रण में हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में सोवियत संघ ने इन द्वीपों पर कब्जा कर लिया और वर्ष 1949 तक जापानी निवासियों को निष्कासित कर दिया था। जबकि टोक्यो का दावा है कि 19वीं सदी के प्रारंभ से ही ये द्वीप जापान का हिस्सा रहे हैं।



कारण :

  • जापान इन द्वीपों पर अपनी संप्रभुता की पुष्टि ‘शिमोडा संधि’ (1855), क्यूराइल- सखालिन की अदला-बदली के लिये ‘सेंट पीटर्सबर्ग की संधि’ (1875) और 1904-05 का रूस-जापान युद्ध के बाद हुई ‘पोर्ट्समाउथ संधि’ (1905) के द्वारा करता है। 

  • वहीं दूसरी ओर, रूस याल्टा समझौते (1945) और पॉट्सडैम घोषणा (1945) को अपनी संप्रभुता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करता है। रूस का तर्क है कि वर्ष 1951 की सैन फ्रांसिस्को संधि के तहत जापान ने द्वीपों पर रूसी संप्रभुता को स्वीकार किया था। इस संधि के अनुच्छेद 2 के तहत जापान ने क्यूराइल द्वीप समूह के सभी अधिकार, शीर्षक और दावे को त्याग दिया था।

  • हालाँकि, जापान का तर्क है कि सैन फ्रांसिस्को संधि का उपयोग यहाँ नहीं किया जा सकता क्योंकि सोवियत संघ ने कभी भी शांति संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये। जापान ने यह मानने से भी इनकार कर दिया कि चार विवादित द्वीप वास्तव में क्यूराइल शृंखला का हिस्सा थे।

  • वस्तुतः जापान और रूस तकनीकी रूप से अभी भी युद्धरत हैं क्योंकि उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शांति संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। वर्ष 1956 में, जापानी प्रधानमंत्री की सोवियत संघ की यात्रा के दौरान यह सुझाव दिया गया था कि शांति संधि पर हस्ताक्षर होने के बाद चार में से दो द्वीप जापान को वापस कर दिये जाएँगे। 

  • हालाँकि लगातार मतभेदों के कारण शांति संधि पर हस्ताक्षर नहीं हुए। वहीं दोनों देशों ने जापान-सोवियत संयुक्त घोषणा पर हस्ताक्षर किये, जिसने दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों को बहाल किया। 

  • कालांतर में सोवियत संघ ने अपनी स्थिति सख्त कर ली, यहाँ तक कि उसने यह मानने से इनकार कर दिया कि उसका जापान के साथ क्षेत्रीय विवाद मौजूद है। वर्ष 1991 में मिखाइल गोर्बाचेव की जापान यात्रा के दौरान सोवियत संघ ने माना कि द्वीप एक क्षेत्रीय विवाद का विषय थे।



विवाद क्यों :

  • जापान संभवतः रूस-चीन गठबंधन से भयभीत है क्योंकि जापान के दोनों देशों के साथ ही क्षेत्रीय विवाद तथा एक असहज इतिहास रहा है।

  • जापान के पास वर्तमान समय में रूस को अलग-थलग करने और उसे अंतर्राष्ट्रीय कानून के आदतन अपराधी के रूप में चित्रित करने का यह एक अच्छा अवसर है।



द्वीपीय विवाद सुलझाने के प्रयास :

  • शिमोडा की संधि (1855): वर्ष 1855 में जापान और रूस ने शिमोडा की संधि का समापन किया, जिसने जापान को चार सबसे दक्षिणी द्वीपों और शेष शृंखला का नियंत्रण रूस को दिया।
  • सेंट पीटर्सबर्ग की संधि (1875): वर्ष 1875 में दोनों देशों के बीच हस्ताक्षरित सेंट पीटर्सबर्ग की संधि में रूस ने सखालिन द्वीप के निर्विरोध नियंत्रण के बदले कुरील का कब्ज़ा जापान को सौंप दिया।हालाँकि द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में सोवियत संघ द्वारा इन द्वीपों को फिर से जब्त कर लिया गया था।
  • याल्टा समझौता (1945): वर्ष 1945 में याल्टा समझौतों (वर्ष 1951 में जापान के साथ औपचारिक रूप से शांति संधि) के हिस्से के रूप में द्वीपों को सोवियत संघ को सौंप दिया गया था और जापानी आबादी को स्वदेश लाया गया तथा सोवियत संघ द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।
  • सैन फ्रांसिस्को शांति संधि (1951): वर्ष 1951 में मित्र राष्ट्रों और जापान के बीच हस्ताक्षरित सैन फ्रांसिस्को शांति संधि में कहा गया है कि जापान को "कुरील द्वीपों पर सभी अधिकार एवं दावा" छोड़ देना चाहिये, लेकिन यह उन पर सोवियत संघ की संप्रभुता को भी मान्यता नहीं देता है।द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल मुख्य राष्ट्र:धुरी शक्तियाँ (जर्मनी, इटली और जापान),मित्र राष्ट्र (फ्राँस, ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ तथा चीन)।
  • जापान-सोवियत संयुक्त घोषणा (1956): द्वीपों पर विवाद ने द्वितीय विश्व युद्ध को समाप्त करने के लिये एक शांति संधि के समापन को रोक दिया है।वर्ष 1956 में जापान-सोवियत संयुक्त घोषणा द्वारा जापान और रूस के बीच राजनयिक संबंध बहाल किये गए।उस समय रूस ने जापान के निकटतम दो द्वीपों को देने की पेशकश की लेकिन जापान ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि दोनों द्वीपों में विचारधीन भूमि का केवल 7% ही हिस्सा था।
  • वर्ष 1991 के बाद से विवाद को सुलझाने और शांति संधि पर हस्ताक्षर करने के कई प्रयास हुए हैं। सबसे हालिया प्रयास प्रधानमंत्री शिंजो आबे के कार्यकाल के दौरान किया गया जब विवादित द्वीपों के संयुक्त आर्थिक विकास पर चर्चा की गई।
  • वास्तव में, दोनों देश वर्ष 1956 के जापान-सोवियत संयुक्त घोषणा के आधार पर द्विपक्षीय वार्ता करने पर सहमत हुए थे। इस घोषणा के अनुसार शांति संधि के बाद रूस, जापान को दो द्वीप शिकोटन और हाबोमाई द्वीप वापस देने के लिये तैयार था। 
  • रूस के साथ संबंधों में सुधार करने के जापान के प्रयास ऊर्जा स्रोतों में विविधता लाने और रूस को अपना निर्यातक बनाने और विदेशी निवेश लाने की आवश्यकता से प्रेरित थे, लेकिन दोनों पक्षों की राष्ट्रवादी भावनाओं ने विवाद के समाधान को रोक दिया।


क्यूराइल द्वीप समूह पर जापान की नीति में बदलाव रूस के साथ द्विपक्षीय संबंधों को और नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा। साथ ही यह इसके दो पड़ोसियों चीन और रूस के एक साथ आने की संभावना को और आगे बढ़ाएगा।

Monday, May 16, 2022

उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) (समीक्षा)


@NATO


North Atlantic Treaty Organization, NATO एक सैन्य गठबंधन है, जिसकी स्थापना 4 अप्रैल 1949 को हुई। इसका मुख्यालय (headquarter) ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में है। संगठन ने सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था बनाई है, जिसके अन्तर्गत सदस्य राज्य बाहरी आक्रमण की स्थिति में सहयोग करने के लिए सहमत होंगे।

गठन के प्रारम्भ के कुछ वर्षों में यह संगठन एक राजनीतिक संगठन से अधिक नहीं था। किन्तु कोरियाई युद्ध ने सदस्य देशों को प्रेरक का काम किया और दो अमरीकी सर्वोच्च कमाण्डरों के दिशानिर्देशन में एक एकीकृत सैन्य संरचना निर्मित की गई। लॉर्ड इश्मे पहले नाटो महासचिव बने, जिनकी संगठन के उद्देश्य पर की गई टिप्पणी, "रूसियों को बाहर रखने, अमेरीकियों को अन्दर और जर्मनों को नीचे रखने" (के लिए गई है।) खासी चर्चित रही। यूरोपीय और अमरीका के बीच सम्बन्ध की भाँति ही संगठन की ताकत घटती-बढ़ती रही। इन्हीं परिस्थितियों में फ्रांस स्वतन्त्र परमाणु निवारक बनाते हुए नाटो की सैनिक संरचना से 1966 से अलग हो गया। मैसिडोनिया 6 फरवरी 2019 को नाटो का ३०वाँ सदस्य देश बना।

1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने के पश्चात संगठन का पूर्व की तरफ बाल्कन हिस्सों में हुआ और वारसा संधि से जुड़े हुए अनेक देश 1999 और 2004 में इस गठबन्धन में शामिल हुए। 1 अप्रैल 2009 को अल्बानिया और क्रोएशिया के प्रवेश के साथ गठबन्धन की सदस्य संख्या बढ़कर 28 हो गई। संयुक्त राज्य अमेरिका में 11 सितम्बर 2001 के आतंकवादी आक्रमण के पश्चात नाटो नई चुनौतियों का सामना करने के लिए नए सिरे से तैयारी कर रहा है, जिसके तहत अफ़गानिस्तान में सैनिकों की और इराक में प्रशिक्षकों की नियुक्ति की गई है।

बर्लिन प्लस समझौता : नाटो और यूरोपीय संघ के बीच 16 दिसम्बर 2002 को बनाया का एक व्यापक पैकेज है, जिसमें यूरोपीय संघ को किसी अन्तरराष्ट्रीय विवाद की स्थिति में कार्रवाई के लिए नाटो परिसम्पत्तियों का उपयोग करने की छूट दी गई है, बशर्ते नाटो इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं करना चाहता हो। नाटो के सभी सदस्यों की संयुक्त सैन्य खर्च दुनिया के रक्षा व्यय का 70% से अधिक है, जिसका संयुक्त राज्य अमेरिका अकेले दुनिया का कुल सैन्य खर्च का आधा हिस्सा खर्च करता है और ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और इटली 15% खर्च करते हैं।



इतिहास :

  • द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विश्व रंगमंच पर अवतरित हुई दो महाशक्तियों सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीत युद्ध का प्रखर विकास हुआ। फुल्टन भाषण व ट्रूमैन सिद्धान्त के तहत जब साम्यवादी प्रसार को रोकने बात कही गई तो प्रत्युत्तर में सोवियत संघ ने अंतर्राष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन कर १९४८ में बर्लिन की नाकेबन्दी कर दी। इसी क्रम में यह विचार किया जाने लगा कि एक ऐसा संगठन बनाया जाए जिसकी संयुक्त सेनाएँ अपने सदस्य देशों की रक्षा कर सके।

  • मार्च १९४८ में ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैण्ड तथा लक्सेमबर्ग ने बूसेल्स की सन्धि पर हस्ताक्षर किए। इसका उद्देश्य सामूहिक सैनिक सहायता व सामाजिक-आर्थिक सहयोग था। साथ ही सन्धिकर्ताओं ने यह वचन दिया कि यूरोप में उनमें से किसी पर आक्रमण हुआ तो शेष सभी चारों देश हर सम्भव सहायता देगे।

  • इसी पृष्ठभूमि में बर्लिन की घेराबन्दी और बढ़ते सोवियत प्रभाव को ध्यान में रखकर अमेरिका ने स्थिति को स्वयं अपने हाथों में लिया और सैनिक गुटबन्दी दिशा में पहला अति शक्तिशाली कदम उठाते हुए उत्तरी अटलाण्टिक सन्धि संगठन अर्थात नाटो की स्थापना की। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद १५ में क्षेत्रीय संगठनों के प्रावधानों के अधीन उत्तर अटलांटिक सन्धि पर हस्ताक्षर किए गए। उसकी स्थापना ४ अप्रैल, १९४९ को वांशिगटन में हुई थी जिस पर १२ देशों ने हस्ताक्षर किए थे। ये देश थे- फ्रांस, बेल्जियम, लक्जमर्ग, ब्रिटेन, नीदरलैंड, कनाडा, डेनमार्क, आइसलैण्ड, इटली, नार्वे, पुर्तगाल और संयुक्त राज्य अमेरिका ।

  • शीत युद्ध की समाप्ति से पूर्व यूनान, टर्की, पश्चिम जर्मनी, स्पेन भी सदस्य बने और शीत युद्ध के बाद भी नाटों की सदस्य संख्या का विस्तार होता रहा। १९९९ में मिसौरी सम्मेलन में पोलैण्ड, हंगरी, और चेक गणराज्य के शामिल होने से सदस्य संख्या १९ हो गई। मार्च २००४ में ७ नए राष्ट्रों को इसका सदस्य बनाया गया फलस्वरूप सदस्य संख्या बढ़कर २६ हो गई। इस संगठन का मुख्यालय बेल्जियम की राजधानी ब्रूसेल्स में हैं।




स्थापना के कारण : 

  • द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप से अपनी सेनाएँ हटाने से मना कर दिया और वहाँ साम्यवादी शासन की स्थापना का प्रयास किया। अमेरिका ने इसका लाभ उठाकर साम्यवाद विरोधी नारा दिया। और यूरोपीय देशों को साम्यवादी खतरे से सावधान किया। फलतः यूरोपीय देश एक ऐसे संगठन के निर्माण हेतु तैयार हो गए जो उनकी सुरक्षा करे। व नाटो सगठन बनाया गया ।

  • द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पश्चिम यूरोपीय देशों ने अत्यधिक नुकसान उठाया था। अतः उनके आर्थिक पुननिर्माण के लिए अमेरिका एक बहुत बड़ी आशा थी ऐसे में अमेरिका द्वारा नाटो की स्थापना का उन्होंने समर्थन किया।




उद्देश्य : 

  • यूरोप पर आक्रमण के समय अवरोधक की भूमिका निभाना।

  • सोवियत संघ के पश्चिम यूरोप में तथाकथित विस्तार को रोकना तथा युद्ध की स्थिति में लोगों को मानसिक रूप से तैयार करना।

  • सैन्य तथा आर्थिक विकास के लिए अपने कार्यक्रमों द्वारा यूरोपीय राष्ट्रों के लिए सुरक्षा छत्र प्रदान करना।

  • पश्चिम यूरोप के देशों को एक सूत्र में संगठित करना।

  • इस प्रकार नाटों का उद्देश्य "स्वतंत्र विश्व" की रक्षा के लिए साम्यवाद के लिए और यदि संभव हो तो साम्यवाद को पराजित करने के लिए अमेरिका की प्रतिबद्धता माना गया।

  • नाटो के 6 सदस्य देश एक दूसरे देशों के मध्य सुरक्षा प्रधान करता हैं ।

  • प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका चाहता है कि पूरी दुनिया पर उसका शासन बने" (डॉ अनिल बाबरे)




संरचना : 

नाटों का मुख्यालय ब्रसेल्स में हैं। इसकी संरचना 4 अंगों से मिलकर बनी है-

  • परिषद : यह नाटों का सर्वोच्च अंग है। इसका निर्माण राज्य के मंत्रियों से होता है। इसकी मंत्रिस्तरीय बैठक वर्ष में एक बार होती है। परिषद् का मुख्य उत्तरायित्व समझौते की धाराओं को लागू करना है।

  • उप परिषद् : यह परिषद् नाटों के सदस्य देशों द्वारा नियुक्त कूटनीतिक प्रतिनिधियों की परिषद् है। ये नाटो के संगठन से सम्बद्ध सामान्य हितों वाले विषयों पर विचार करते हैं।

  • प्रतिरक्षा समिति : इसमें नाटों के सदस्य देशों के प्रतिरक्षा मंत्री शामिल होते हैं। इसका मुख्य कार्य प्रतिरक्षा, रणनीति तथा नाटों और गैर नाटों देशों में सैन्य संबंधी विषयों पर विचार विमर्श करना है।

  • सैनिक समिति : इसका मुख्य कार्य नाटों परिषद् एवं उसकी प्रतिरक्षा समिति को सलाह देना है। इसमें सदस्य देशों के सेनाध्यक्ष शामिल होते हैं।




भूमिका एवं स्वरूप :

  • नाटों के स्वरूप व उसकी भूमिका को उसके संधि प्रावधानों के आलोक में समझा जा सकता है। संधि के आरंभ में ही कहा गया हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र के सदस्य देशों की स्वतंत्रता, ऐतिहासिक विरासत, वहाँ के लोगों की सभ्यता, लोकतांत्रिक मूल्यों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानून के शासन की रक्षा की जिम्मेदारी लेगे। एक दूसरे के साथ सहयोग करना इन राष्ट्रों का कर्तव्य होगा इस तरीके से यह संधि एक सहयोगात्मक संधि का स्वरूप लिए हुए थी।

  • संधि प्रावधानों के अनुच्छेद 5 में कहा गया कि संधि के किसी एक देश या एक से अधिक देशों पर आक्रमण की स्थिति में इसे सभी हस्ताक्षरकर्ता देशों पर आक्रमण माना जाएगा और संधिकर्ता सभी राष्ट्र एकजुट होकर सैनिक कार्यवाही के माध्यम से एकजुट होकर इस स्थिति का मुकाबला करेंगे। इस दृष्टि से उस संधि का स्वरूप सदस्य देशों को सुरक्षा छतरी प्रदान करने वाला है।

  • सोवियत संघ ने नाटो को साम्राज्यवादी और आक्रामक देशों के सैनिक संगठन की संज्ञा दी और उसे साम्यवाद विरोधी स्वरूप वाला घोषित किया।




प्रभाव :

  • पश्चिमी यूरोप की सुरक्षा के तहत बनाए गए नाटो संगठन ने पश्चिमी यूरोप के एकीकरण को बल प्रदान किया। इसने अपने सदस्यों के मध्य अत्यधिक सहयोग की स्थापना की।

  • इतिहास में पहली बार पश्चिमी यूरोप की शक्तियों ने अपनी कुछ सेनाओं को स्थायी रूप से एक अंतर्राष्ट्रीय सैन्य संगठन की अधीनता में रखना स्वीकार किया।

  • द्वितीय महायुद्ध से जीर्ण-शीर्ण यूरोपीय देशों को सैन्य सुरक्षा का आश्वासन देकर अमेरिका ने इसे दोनों देशों को ऐसा सुरक्षा क्षेत्र प्रदान किया जिसके नीचे वे निर्भय होकर अपने आर्थिक व सैन्य विकास कार्यक्रम पूरा कर सके।

  • नाटो के गठन से अमेरिकी पृथकक्करण की नीति की समाप्ति हुई और अब वह यूरोपीय मुद्दों से तटस्थ नहीं रह सकता था।

  • नाटो के गठन ने शीतयुद्ध को बढ़ावा दिया। सोवियत संघ ने इसे साम्यवाद के विरोध में देखा और प्रत्युत्तर में वारसा पैक्ट नामक सैन्य संगठन कर पूर्वी यूरोपीय देशों में अपना प्रभाव जमाने की कोशिश की।

  • नाटो ने अमेरिकी विदेश नीति को भी प्रभावित किया। उसकी वैदशिक नीति के खिलाफ किसी भी तरह के वाद-प्रतिवाद को सुनने के लिए तैयार नहीं रही और नाटो के माध्यम से अमेरिका का यूरोप में अत्यधिक हस्तक्षेप बढ़ा।

  • यूरोप में अमेरिका के अत्यधिक हस्तक्षेप ने यूरोपीय देशों को यह सोचने के लिए बाध्य किया कि यूरोप की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान यूरोपीय दृष्टिकोण से हल किया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण ने “यूरोपीय समुदाय” के गठन का मार्ग प्रशस्त किया।


Friday, May 13, 2022

भारत - नेपाल सीमा विवाद (समीक्षा)

@amarujala


भारत और नेपाल द्वारा , दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच हुई बैठक में ' कालापानी सीमा विवाद ' ( Kalapani border dispute ) पर चर्चा की गयी । भारत ने नेपाल से सीमा विवाद का राजनीतिकरण किए जाने से बचने का भी आग्रह किया है ।(2021)
 नेपाल द्वारा आधिकारिक रूप से नेपाल का नवीन मानचित्र जारी किया गया, जो उत्तराखंड के कालापानी (Kalapani) लिंपियाधुरा (Limpiyadhura) और लिपुलेख (Lipulekh) को अपने संप्रभु क्षेत्र का हिस्सा मानता है।(2020)


पृष्ठभूमि : 
  • 2 नवंबर, 2019 को भारत ने एक नवीन मानचित्र प्रकाशित किया था यह जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश के रूप में दर्शाता है। इसी मानचित्र मे, भारत के संशोधित राजनीतिक क्षेत्र में ' कालापानी लिपुलेक लिंपियाधुरा के त्रिकोणीय क्षेत्र को उत्तराखंड के क्षेत्र के भीतर दर्शाया जाने के पश्चात् उत्पन्न हुआ "कालापानी सीमा विवाद" 
  • ‘विदेश मंत्रालय’ (Ministry of External Affairs- MEA) ने नेपाल के नवीन राजनीतिक मानचित्र को पूरी तरह से 'कृत्रिम' तथा भारत के लिये अस्वीकार्य बताया है।



' कालापानी ' की अवस्थितिः
  • ' कालापानी ' ( Kalapani ) , उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के पूर्वी छोर पर स्थित है । यह , उत्तर में चीन के अधीन तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र के साथ तथा पूर्व और दक्षिण में नेपाल के साथ सीमा बनाता है । यह लिंपियाधुरा ( Limpiyadhura ) लिपुलेख और कालापानी के बीच में स्थित है । कालापानी क्षेत्र नेपाल और भारत के बीच सबसे बड़ा क्षेत्रीय विवाद है । इस क्षेत्र के अंतर्गत उच्च हिमालय में कम से कम 37,000 हेक्टेयर भूमि शामिल है ।



' कालापानी ' पर नियंत्रण :
  • यह क्षेत्र भारत के नियंत्रण में है लेकिन नेपाल ऐतिहासिक और मानचित्रक ( कार्टोग्राफिक ) कारणों से इस क्षेत्र पर अपना दावा करता है ।



विवाद की वजह :
  • ' कालापानी क्षेत्र का नाम इससे होकर बहने वाली ' काली नदी ' के नाम पर पड़ा है । इस क्षेत्र पर नेपाल का दावा इसी नदी पर आधारित है । 1814-16 में हुए गोरखा युद्ध ' / ' एंग्लो - नेपान युद्ध के पश्चात् काठमांडू के गोरखा शासकों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हस्ताक्षरित ' सुगौली की संधि ' में काली नदी ' को नेपाल की सीमा के रूप में निर्धारित किया गया था । सन् 1816 में संधि की पुष्टि की गई । 
  • संधि के अंतर्गत , नेपाल को पश्चिम में कुमाऊं गडवाल और पूर्व में सिक्किम के अपने क्षेत्रों को खोना पड़ा था। 
  • संधि के अनुच्छेद 5 के अनुसार , नेपाल के राजा ने काली नदी के पश्चिम में स्थित क्षेत्र पर अपना दावा छोड़ दिया । काली नदी , उच्च हिमालय से निकलती है और भारतीय उपमहाद्वीप के विस्तृत मैदानों से होकर प्रवाहित होती है । 
  • संधि के अनुसार , ब्रिटिश शासकों ने काली नदी के पूर्व में पड़ने वाले क्षेत्र पर नेपाल के अधिकार को मान्यता दी थी ।



विवाद की उत्पत्ति के ऐतिहासिक कारण :
  • नेपाल के विशेषज्ञों के अनुसार , काली नदी के पूर्वी क्षेत्र की शुरुआत , नदी के उद्गम स्थल से मानी जानी चाहिए । इनके अनुसार नदी का उद्गम स्रोत ' लिंपियाधुरा के समीप पहाड़ों में है , जोकि नदी के शेष प्रवाह क्षेत्र की तुलना में अधिक ऊंचाई पर है । 
  • नेपाल का दावा है , लिंपियाधुरा से नीचे की ओर बहती हुए नदी की संपूर्ण धारा के पूर्व में स्थित उच्च पर्वतीय क्षेत्र उनका है ।
  • दूसरी ओर भारत का कहना है , नदी का उद्गम कालापानी से होता है , और यही से उसकी सीमा शुरू होती है ।
  • दोनों देशों के मध्य यह विवाद , मुख्य रूप से काली नदी के उद्गम स्थल और पहाड़ों से होकर बहने वाली इसकी कई सहायक नदियों की अलग - अलग व्याख्या के कारण है । 
  • काली नदी के पूर्व में स्थित क्षेत्र पर नेपाल का दावा , नदी के लिंपियाधुरा उद्गम पर आधारित है , जबकि भारत का कहना है , कि नदी वास्तव में कालापानी के पास निकलती है और इसीलिए इसका नाम काली पड़ा है । 



भारत का लिपुलेख ( Lipulekh ) पर नियंत्रण :  
  • 1962 के युद्ध में तिब्बती पठार से लगे हिमालयी दरों का महत्व भलीभांति स्पष्ट हो गया था ।
  • उस युद्ध के दौरान , चीनी सेना ने तवांग में स्थित से ला ' ( Se La ) दरें का इस्तेमाल किया और पूर्व में ब्रह्मपुत्र के मैदानों तक पहुंच गई थी । 
  • पूर्व में सैन्य हार ने स्पष्ट रूप से प्रदर्शित कर दिया कि , ' अपर्याप्त रूप से सुरक्षित दरें चीन के खिलाफ भारतीय सैन्य तैयारियों की एक बड़ी कमजोरी थे ।
  • 'से ला ' दर्रा जिसकी कुछ हद तक किलेबंदी भी की गयी थी की तुलना में लिपुलेख ' दर्रा एकदम असुरक्षित था ।
  • इसे देखते हुए , नेपाली राजा महेंद्र ने दिल्ली के साथ एक समझौता किया और इस क्षेत्र को सुरक्षा उद्देश्यों के लिए भारत को सौंप दिया ।
  • 1969 में द्विपक्षीय वार्ता के तहत ' कालापानी को छोड़कर सभी चौकियों को हटा दिया गया था । 

सुस्ता क्षेत्र विवाद : 
  • उत्तर प्रदेश तथा बिहार राज्यों की सीमा पर पश्चिमी चंपारण ज़िलों के पास अवस्थित ‘सुस्ता क्षेत्र’ को भी नेपाल द्वारा अपने नवीन मानचित्र में शामिल किया गया है। 
  • नेपाल का दावा है कि भारत ने इस क्षेत्र पर अतिक्रमण किया है तथा भारत को इस क्षेत्र को तुरंत खाली करना देना चाहिये।
  • तीस्ता क्षेत्र बिहार में 'वाल्मीकि टाइगर रिज़र्व' की उत्तरी सीमा पर अवस्थित एक गाँव है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत अर्द्ध-सैनिक पुलिस बल, सशस्त्र सीमा बल की एक इकाई इस क्षेत्र में तैनात है।
  • सुस्ता क्षेत्र में 265 से अधिक परिवार निवास करते हैं तथा खुद को नेपाल से संबंधित मानते हैं।
  • विवाद का मूल कारण गंडक नदी के बदलते मार्ग को माना जाता है। गंडक नदी नेपाल और बिहार (भारत) के बीच अंतर्राष्ट्रीय सीमा बनाती है। गंडक नदी को नेपाल में नारायणी नदी के रूप में जाना जाता है।
  • नेपाल का मानना है कि पूर्व में सुस्ता क्षेत्र गंडक नदी के दाएँ किनारे अवस्थित था, जो नेपाल का हिस्सा था। लेकिन समय के साथ नदी के मार्ग में परिवर्तन के कारण यह क्षेत्र वर्तमान में गंडक के बाएँ किनारे पर अवस्थित है। वर्तमान में इस क्षेत्र को भारत द्वारा नियंत्रित किया जाता है।





नेपाल और भारत ने कहां चूक की है ?
  • भारत और चीन के बीच 2015 के लिपुलेख समझौते जिसके तहत भारत के मानसरोवर तीर्थयात्रा संबंधों को नवीनीकृत किया गया था के दौरान भारत और चीन ने नेपाल की चिंताओं को स्पष्ट रूप से अनदेखा कर दिया था । 
  • तीर्थयात्रा और तिब्बत में व्यापार को बढ़ावा देने वाले इस समझौते से पहले भारत या चीन , किसी भी पक्ष ने नेपाल से कोई परामर्श अथवा राय नहीं ली । 



वर्तमान स्थिति : 
  • कुछ समय पूर्व , नेपाल द्वारा संशोधित आधिकारिक नक्शा प्रकाशित किया गया था , जिसमे काली नदी के उद्गम स्रोत लिंपियाधुरा से लेकर त्रिकोणीय क्षेत्र के उत्तर - पूर्व में कालापानी और लिपुलेख दरें तक के क्षेत्र को अपने क्षेत्र के रूप में शामिल किया गया है ।
  • पिछले साल प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली ने मानचित्र को संवैधानिक दर्जा देने के लिए संविधान संशोधन प्रस्ताव भी प्रस्तुत किया था ।
  • भारतीय पर्यवेक्षकों का कहना है कि नेपाल सरकार का यह कदम कालापानी मुद्दे पर भविष्य में किसी भी समाधान को लगभग असंभव बना सकता है , क्योंकि इस प्रस्ताव को संवैधानिक गारंटी मिलने से इस विषय पर ' काठमांडू ' की स्थिति दृढ़ हो जाएगी ।
  • अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार, किसी नदी के मार्ग में परिवर्तन होता है तो अंतर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण नदी के मार्ग में बदलाव के स्वरूप के आधार पर किया जाता है अर्थात नदी मार्ग में आकस्मिक बदलाव (Avulsion) हो तो अंतर्राष्ट्रीय सीमा अपरिवर्तित रहती है, यदि नदी मार्ग में बदलाव धीरे-धीरे हो (Accretion) तो सीमा उसके अनुसार परिवर्तित होती है।

दोनों देशों को मौजूदा संधियों के दायरे में एक वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र के माध्यम से विवाद समाधान की दिशा में विचार-विमर्श किया जाना चाहिये। भारत को नेपाल के साथ सीमा विवादों को कूटनीतिक संवाद के माध्यम से विवादों का अंतर्राष्ट्रीयकरण किये बिना सुलझाने का प्रयास करना चाहिये।

Wednesday, May 11, 2022

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का ‘फायर रेडी फॉर्मूला’ (समीक्षा)


@DTE


संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने वैश्विक सरकारों से एक नया 'फायर रेडी फॉर्मूला' अपनाने का आह्वान किया है। इससे पूर्व यू.एन.ई.पी. ने भविष्य में जंगल की आग (वनाग्नि) की घटनाओं में तीव्र वृद्धि से संबंधित चेतावनी जारी की थी। 

 फायर रेडी फॉर्मूला 
  • नए फॉर्मूले में जंगल की आग के प्रबंधन के लिये कुल बजटीय आबंटन में 66% हिस्सा नियोजन, रोकथाम, तैयारी एवं रिकवरी के लिये, जबकि शेष हिस्से को प्रतिक्रिया (Response) पर व्यय करने की परिकल्पना की गई है। 
  • यू.एन.ई.पी. की एक रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2030 तक जंगल की आग की घटनाओं में 14% तक की वृद्धि होने की संभावना है। वर्ष 2050 तक यह वृद्धि 33% तक हो सकती है। साथ ही, वर्ष 2100 तक इसमें 52% तक की वृद्धि का अनुमान है। 

यू.एन.ई.पी. रिपोर्ट से संबंधित अन्य तथ्य 
  •  यू.एन.ई.पी. ने ग्रिड-अरेन्डल (नॉर्वे स्थित एक गैर-लाभकारी पर्यावरण संचार केंद्र) के साथ संयुक्त रूप से एक रिपोर्ट जारी की है। ये रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा के पुन: प्रारंभ होने वाले 5वें सत्र से पहले जारी की गई थी। इसके अनुसार, जंगल की आग के जोखिम को कम करने, स्थानीय समुदायों के साथ कार्य करने और जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिये वैश्विक प्रतिबद्धताओं को मज़बूत करने में और अधिक निवेश की आवश्यकता थी। 
  • यू.एन.ई.पी. ने इस संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सहयोग को मज़बूत करने के आह्वान के साथ वनाग्नि प्रबंधन के लिये अंतर्राष्ट्रीय मानकों को विकसित करने की भी सिफारिश की है। वनाग्नि के बढ़ते जोखिमों के लिये जलवायु परिवर्तन के अतिरिक्त भूमि उपयोग एवं भूमि प्रबंधन प्रथाओं में परिवर्तन भी ज़िम्मेदार हैं। 
  • रिपोर्ट के अनुसार, ‘एकीकृत वनाग्नि प्रबंधन’ वैश्विक स्तर पर इस जोखिम के संदर्भ में वर्तमान एवं भविष्य के परिवर्तनों के अनुकूल था। साथ ही, अनुकूल भूमि एवं अग्नि प्रबंधन के लक्ष्य को प्राप्त करने तथा बनाए रखने के लिये नीतियों, कानूनी ढाँचे और प्रोत्साहनों के संयोजन की आवश्यकता होती है। 
  • यह वनाग्नि से प्रभावित देशों में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को सुगम बनाने एवं अंतर्राष्ट्रीय सहायता को सक्षम करने में सहायक होगा। 

 जंगल की आग :

 कारण -
  • जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व के कुछ हिस्सों में बिजली गिरने की आवृत्ति में वृद्धि का अनुमान है। बिजली गिरने की घटना उत्तरी अमेरिका एवं उत्तरी साइबेरिया के बोरियल वनों (Boreal Forests) में बड़े पैमाने पर जंगल की आग का प्रमुख कारक है। 
  • चरम मौसम की घटनाएँ, जैसे- बढ़ता तापमान एवं अधिक सूखे के कारण जंगल की आग की अवधि लंबी हो रही है। 
  • वन भूमि एवं शहरी विकास के संक्रमण क्षेत्र में जंगल की आग का जोखिम सर्वाधिक स्पष्ट है। सवाना पारिस्थितिकी तंत्र में भी जंगल की आग अधिक सामान्य हो गई है। 
 
बोरियल वन (Boreal Forest) -
  •  जैविक दृष्टिकोण से बोरियल वनों को उच्च-अक्षांशीय वातावरण में उगने वाले वनों के रूप में परिभाषित किया जाता है, जहाँ 6 से 8 महीने तक जमाव तापमान रहता है। यहाँ वृक्षों की ऊँचाई न्यूनतम 5 मीटर और चंदवा कवर (Canopy Cover) 10% तक हो सकता है। 
  • बोरियल वन (टैगा) दुनिया का सबसे बड़ा स्थलीय बायोम है। बोरियल पारिक्षेत्र (Ecozone) मुख्यत: 8 देशों में विस्तृत है- कनाडा, चीन, फ़िनलैंड, जापान, नॉर्वे, रूस, स्वीडन और अमेरिका। 
  •  इस पारिक्षेत्र में प्राय: वृक्ष की शंकुधारी प्रजातियाँ, जैसे- पाइन, स्प्रूस और देवदार के साथ-साथ कुछ चौड़ी प्रजातियों वाले वृक्ष, जैसे- चिनार (Poplar) और सन्टी (Birch) पाए जाते है। 
 प्रभाव - 
  • वनाग्नि की घटनाओं में वृद्धि से संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्यों, पेरिस समझौते और सेंडाई लक्ष्यों की समय पर प्राप्ति नकारात्मक रूप से प्रभावित हो सकती है। 
  • वनाग्नि का बदलता स्वरुप एवं उसकी तीव्रता, विशेषकर विकासशील देशों में, कई एस.डी.जी. लक्ष्यों को प्रभावित कर सकता है। मानव स्वास्थ्य एवं कल्याण से संबंधित एस.डी.जी. लक्ष्यों में भूख, गरीबी उन्मूलन तथा जलवायु कार्रवाई जैसे लक्ष्य शामिल हैं। 
  • जंगल की आग ने सवाना पारिस्थितिकी तंत्र में एक-चौथाई प्रजातियों को प्रभावित किया है। 

 उपाय -
  • यद्यपि वनाग्नि के जोखिम को समाप्त करना संभव नहीं है, किंतु वनाग्नि प्रबंधन एवं संबंधित घटनाओं को कम करने के लिये कदम उठाए जा सकते हैं। मौजूदा सरकारें जंगल की आग की प्रतिक्रियाओं के लिये प्राय: गलत क्षेत्र में निवेश करती हैं। यू.एन.ई.पी. के अनुसार फायर रेडी फॉर्मूला इनमें मदद कर सकता है।
  • यू.एन.ई.पी. के अनुसार, वर्ष 2021 में जंगल की आग से सर्वधिक प्रभावित क्षेत्र अफ्रीका महाद्वीप था। रिपोर्ट में जंगल की आग की निगरानी और प्रबंधन में सुधार के लिये निम्नलिखित अनुसंशाएँ की गई हैं- 
  1.  स्वदेशी अग्नि प्रबंधन तकनीकों की सराहना और उन्हें अपनाना 
  2. लंबी दूरी (Long Range) के मौसम पूर्वानुमान पर ध्यान देना 
  3. रिमोट-सेंसिंग क्षमताओं, जैसे- उपग्रहों, स्थल आधारित रडार, बिजली गिरने की घटनाओं का पता लगाने के साथ-साथ डाटा हैंडलिंग पर ध्यान देना।

Monday, May 09, 2022

Time after time, parliamentarians want to know if India is changing time (Critical Analysis)

@researchgate

@researchgate


India has only one time zone. The country has officially observed India Standard Time (IST) since 1947. However, the UTC+5:30 offset has been used as the local standard time in India since 1906. India is a large country that stretches almost 3000 kilometres (1864 miles) from west to east. It spans nearly 30 degrees longitude (68°7'E to 97°25'E). If the country were to base its time zones on mean solar time, it would have three time zones, but since it only has one, the Sun rises almost 90 minutes earlier in Guar Mota in the east than in Dong in the far west.

Chai Bagan Time : 

Tea Garden Time is an informal time zone used in India's northeastern state Assam. There the clocks are unofficially set one hour ahead of IST (UTC+6:30). In this part of the country, sunrise can come as early as 4:00 (4 am) IST in the morning and sunset at 16:00 (4 pm) IST in the afternoon. Tea Garden Time, translated as “Chai Bagan Time,” was introduced by the British tea companies to increase daylight work hours and thus productivity and is still in use today.


History of Time Zone :

Scottish-born Canadian Sir Sandford Fleming proposed a worldwide system of time zones in 1879.Eventually in 1884 International meridian conference adopted a 24 hour day. Countries across the world keep different times because of Earth’s rotation and revolution around the Sun. As Earth turns by 15° around its axis, time changes by one hour; a 360º-degree rotation yields 24 hours. As a result, the world is divided into 24 time zones shifted by one hour each. 

India had multiple time zones in the past. In 1802, British astronomer John Goldingham at the East India Company established time in Chennai as GMT+5:30. In 1884 two time zones were used in India: Calcutta Time (UTC+5:53:28) and Bombay Time (UTC+4:51:20)—just over an hour apart. Eventually, in 1905, the meridian near Mirzapur (82°33’E) was picked as the standard time for the whole country. This time zone was declared India Standard Time (IST) in 1947, though Calcutta Time was used until 1948 and Bombay Time until 1955. India observes India Standard Time all year. There are no Daylight Saving Time clock changes.



Context :
  • ‘Separate time zone, it is feared, would lead to northeasterners seeing themselves as separate from the rest of the country and provoke secessionist demands’.

  • A favourite question of parliamentarians that has repeated, time after time, in every session of Parliament since 2002, is fittingly about time.

  • Cutting across party lines, members from both Houses have for two decades asked the Centre at least 16 times if India proposes to have two time zones and the steps taken to implement it.

  • First raised in March 2002, the question was effectively settled in August of that year.

  • A ‘High Level Committee’ (HLC) constituted by the Department of Science and Technology in that year had studied the issue and concluded that multiple zones could cause ‘difficulties’ that would disrupt the smooth functioning of the “airlines, Railways, radio, television and telephone services” and so it was best to continue with a unified time.



Research Suggestions :

  • India stretches nearly 3000 km from the east to the west. There are about 28 degrees of longitude between the country’s eastern and western extremities which results in an approximately two hours’ time difference between the westernmost and the easternmost point.

  • Indian Standard Time (calculated on the basis of 82.5′ E longitude, in Mirzapur, Uttar Pradesh), does not affect most of the Indians, except those who live in the Northeast region where the sun rises around 4 a.m. in summer, and gets dark well before 4 p.m. in winter.

  • So, the Northeast region has long complained about the effect of a single time zone on their lives and their economies.

  • Recently Council of Scientific & Industrial Research National Physical Laboratory (CSIR-NPL), which maintains Indian Standard Time (IST), published a research suggesting two time zones and two ISTs in India: IST- I for most of India and IST- II for the North-eastern region – separated by difference of one hour. 



Early Sunshine and sunset :

  • The demand for two time zones rose because northeastern India and the Andaman and Nicobar islands, because of their geography, see an early sunrise and sunset relative to the rest of the country.

  • But because clocks didn’t account for this and official working hours being the same everywhere, valuable working hours were lost in the morning and unnecessary electricity was consumed in the evening hours in these regions and therefore, following a widely prevalent global practice — the U.S. has five time zones, Russia 11 — India too ought to have multiple ones, the reasoning goes.

  • The expert committee, while not favouring multiple time zones, recommended that work timings in the eastern States be advanced by one hour, to “gainfully utilise” the morning hours and would involve only administrative instructions in this regard by the authorities concerned.



Advantages :
  • It will lead to greater efficiencies among the workforce and on energy consumption.

  • Reduction in energy consumption will significantly cut down India’s carbon footprint boosting India’s resolve to fight climate change.

  • There are economic benefits in having two different time zones as people will be able to work better and plan better, according to natural cycles.

  • Many social policy objectives can be achieved such as reducing road accidents and improving women’s safety.

  • Two time zones will allow aligning standard time with daylight time.

  • The hours of daylight were when humans were most productive because specific proteins were expressed in those hours that governed blood pressure, temperature and reflexes, their studies had shown.

  • This was a compelling enough reason to have a separate time zone for the northeast, the NPL scientists wrote.

  • They also calculated that having two time zones would save 2,00,000 units of electricity annually and an issue raised, by the earlier committee, of potential train accidents could be solved if the time zone were set on the longitude passing through the West Bengal–Assam border where train inter–crossings were minimal.



Problems :
  • The possibilities of rail accidents would increase because of the two Time zones. Railway signals are not fully automated, and many routes have single tracks.

  • Resetting clocks with each crossing of the time zone.

  • The overlap between office timings reduces if there are two time zones. Important sectors like banks, industries and MNCs would face difficulties in adjusting to the new time zones.

  • The marking of the dividing line of the two zones would be a problem.

  • Two time zones can have adverse political consequences as India, apart from getting divided on the lines of religion, caste, race, language, etc, now will get divided on the lines of Time Zones.




Way Ahead :
  • The need of the hour is to initiate a process of consultation to consider all aspects regarding the Indian time zone afresh.

  • Proposals of some researchers to set the IST forward by half an hour so  that it is six hours ahead of Universal Coordinated Time can be examined and debated.

  • This will mean advancing the IST from 82.5 degree East to 90 degree East, which will fall at a longitude along the West Bengal-Assam border would go some way in meeting Assam’s demand, and help avoid potential grievances from northwestern India about corresponding inconveniences caused by advancing by one full hour.



Saturday, May 07, 2022

Groundwater Depletion must be arrested (critical Analysis)

@WRR

@WRI


On March 22, the world will be observing World Water Day on the theme ‘Groundwater: making the invisible visible’. Initiated in 1993, this Day raises awareness of about 2.2 billion people living without access to safe water. The broad aim of this Day is to put the spotlight on groundwater management, enhance knowledge exchange and create awareness of the importance of groundwater. Groundwater depletion is a serious threat to the environment. The majority of our bodies and the Earth is made up of water. We may see the beautiful, flowing surface waters that make up the oceans, lakes and rivers, but this water is not always safe for consumption and is much more difficult to filter than groundwater. Consequently, water from the ground is especially valuable.

Groundwater depletion most commonly occurs because of the frequent pumping of water from the ground. We pump the water more quickly than it can renew itself, leading to a dangerous shortage in the groundwater supply. As a growing world with a population that continues to rise, the more we pump water from the ground at a rapid rate, the more difficult it is for the groundwater to provide us with the amount of water that we need.




Indian Scenario

  • In India, out of available water resources of 1,123 billion cubic metre (bcm), 433 bcm comes from groundwater and the remaining from surface water.

  • Groundwater is the main source of domestic water supply for both rural and urban areas as more than 80 percent of supply is sourced through it, making the country the largest user of groundwater in the world.

  • The agriculture sector uses 89 percent of the groundwater for irrigation while 11 percent is used by the domestic and industrial sectors.

  • This excessive extraction of groundwater has made almost 22 percent of the assessed blocks critical or overexploited.

  • At the State level, in Punjab, Haryana, Rajasthan and Delhi groundwater extraction is more than 100 per cent.

  • There are about 8,000 major and small townships in the country and most of them depend on groundwater due to its easy accessibility.

  • The construction of private tube wells, especially in housing colonies and multi-storey buildings, is going on unchecked and, as a result, dependency on groundwater, especially in big cities, has increased manifold times.




Groundwater and economy

  • Groundwater also plays a significant role in regulating the economy of our cities.

  • According to a study by The Energy and Resources Institute (TERI), as much as a third of the GDP of cities like Lucknow is directly dependent on groundwater.

  • By 2030, the country’s water demand is projected to be twice the available supply, implying severe water scarcity for hundreds of millions of people and an eventual about 6 percent loss in the country’s GDP.




Reasons for groundwater depletion

  • Excessive exploitation of groundwater, urbanisation and associated concretisation are considered to be the major causes of the declining water table.

  • However, global warming-induced climate change affects the hydrologic cycle and increases the variability of water supply, especially surface water.

  • This will put more pressure on groundwater.

  • Thus, recharging groundwater is essential.

  • Also, almost half of the districts in the country are reported to be having contaminated groundwater, with nitrate, fluoride, arsenic and other heavy metals.




Jal Jeevan Mission

  • To ensure universal access to drinking water, the government has launched Jal Jeevan Mission which aims to provide water tap connection to rural and urban households.

  • This will result in connection to more than 10 crore households in rural areas and 2.68 crore households in urban areas by 2024.

  • Under JJM (rural), single village groundwater-based schemes with end-to- end source sustainability will be encouraged in groundwater-rich areas.

  • In places where groundwater is not abundant, especially in the designated dark blocks and in areas affected by water quality issues, surface water based multi village schemes will be promoted.




Way Forward

  • According to a report by NITI Aayog, if methods for water conservation in India were not adopted, around 20 cities including Bengaluru, Delhi and Hyderabad would run out of groundwater in the next few years.

  • Thus, rainwater harvesting and artificial groundwater recharge need to be adopted in a mission mode, across the country.

  • Most of the States have put in place legislation for protecting water bodies and enabling water harvesting in buildings.

  • But a key policy reform — adequate pricing of water — is still far from becoming a reality.

  • There is wide variation in the percentage of households being charged for water, with the average being about 45 per cent in non-Himalayan States.

  • Similar to rural areas, community engagement in urban areas is necessary to create a sense of responsibility among the masses.

  • Water help groups/water users associations with members trained to take care of water conservation activities at the local level, must be formed.

  • Easy line of credit for implementation of water conservation measures should be made available to the groups.

  • Similarly, ‘commercial water user groups’ should be formed and engagement of commercial and bulk users in groundwater management must be ensured.

  • Probably, a mechanism similar to ‘fire safety control’ needs to be placed for water conservation in premises of every commercial user having a specifically designated team of water warriors within the organisation.

  • For sustainable use of water, efficient management of groundwater is a must.

  • Human induced climate change calls for conserving groundwater through efficient recharge and sustainable management.

  • Innovative technologies like air-to-water systems, de-centralised wastewater treatment systems, construction of ‘green’ and ‘grey’ infrastructure like separate drains for stormwater management will reduce pressure on groundwater.

  • The Atal Bhujal Scheme is a step in the right direction for groundwater mapping and management.

  • This will create more awareness of groundwater resources and their effective conservation.



Thursday, May 05, 2022

जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी रिपोर्ट (समीक्षा)

@IPCC

@IPCC

@IPCC


विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा वर्ष 1988  में आई.पी.सी.सी. का गठन किया गया। इस पैनल में भारत सहित 195 सदस्य है। इसका उद्देश्य सरकारों को वैज्ञानिक जानकारी प्रदान करना है जिसका उपयोग वे जलवायु नीतियों के विकास के लिये कर सकते हैं। इसके द्वारा पहली आकलन रिपोर्ट वर्ष 1990 में जारी की गई थी। वर्ष 1995, 2001, 2007 और 2015 में इसकी चार अन्य रिपोर्ट भी जारी की गई। ये रिपोर्ट केवल यथासंभव वैज्ञानिक प्रमाणों के माध्यम से तथ्यात्मक स्थितियों को प्रस्तुत करती हैं, न कि देशों या सरकारों को कोई सुझाव देती हैं।

इस प्रकार, ये रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन के प्रति वैश्विक प्रतिक्रिया का आधार बनती है। अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन वार्ताओं, जैसे- पेरिस समझौते और क्योटो प्रोटोकॉल के निर्माण में इन रिपोर्ट्स की मुख्य भूमिका रही है। पर्यावरण सुधार पर नवीनतम रिपोर्ट वैश्विक जलवायु कार्रवाई को लेकर एक गंभीर तस्वीर पेश करती है। मानवजनित स्रोतों से कुल शुद्ध ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्ज़न में साल 2010 और 2019 के बीच बढ़ोतरी जारी रही है जो औद्योगिकीकरण के पहले के समय (1850) के बाद से हुई वृद्धि के अनुरूप है। वास्तव में साल 2010 से लेकर 2019 के बीच औसत वार्षिक ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्ज़न पिछले किसी भी दशक के मुक़ाबले अधिक रहा था, भले ही विकास दर पिछले दशक की तुलना में कम हो गई हो। यह एक चेतावनी के रूप में भी सामने आता है कि वैश्विक तापमान को करीब 1.5 ° सेंटीग्रेड तक सीमित करने के लिए गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता होगी जिससे ग्रीन हाउस गैस उत्सर्ज़न का स्तर साल 2025 से पहले के जैसा ना हो, और बाद में साल 2019 के स्तर की तुलना में 2030 के भीतर 42 प्रतिशत कम हो जाए।

हाल ही में, ‘जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल’ (IPCC) ने ‘जलवायु परिवर्तन 2022 : प्रभाव, अनुकूलन और संवेदनशीलता’ (Climate Change 2022: Impacts, Adaptation and Vulnerability) नामक रिपोर्ट जारी की है। जैसा कि आई.पी.सी.सी. को जलवायु वैज्ञानिकों की वैश्विक संस्था माना जाता है।




‘जलवायु न्याय एवं समानता’ का मुद्दा 

  • यह आई.पी.सी.सी. की छठीं आकलन रिपोर्ट का दूसरा भाग है। इस आकलन रिपोर्ट के पहले भाग को अगस्त 2021 में जारी किया गया था। इसका तीसरा और अंतिम भाग अप्रैल 2022 में जारी किया जा सकता है, जिसमें कार्बन उत्सर्जन को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।

  • इस रिपोर्ट में पहली बार जलवायु अनुकूलन समर्थन (Adaptation Support) के लिये 'जलवायु न्याय एवं समानता’ (Climate Justice and Equity) को महत्त्वपूर्ण तत्व के रूप में मान्यता दी गई है। जैसा कि भारत लंबे समय से जलवायु न्याय के मुद्दे को विश्व मंच पर उठाता रहा है और विकास के लिये उपलब्ध कार्बन स्पेस में 'उचित हिस्सेदारी' हेतु विकासशील देशों के नेतृत्वकर्ता की भूमिका निभाता रहा है।




विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव :


प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि 

  • इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन जनित प्रतिकूल प्रभावों के पहले से अधिक गंभीर एवं व्यापक होने की चेतावनी जारी की गई है। शोधकर्ताओं के अनुसार, जलवायु संकट से निपटने के लिये ‘गौण’ या ‘वृद्धिशील’ (Minor or Incremental) प्रतिक्रियाएँ पर्याप्त नहीं होंगी।

  • जीवित प्राणियों के साथ-साथ प्राकृतिक प्रणालियों (Natural Systems) में बढ़ते तापमान के प्रति अनुकूल होने की क्षमता निरंतर कमज़ोर होती जा रही है। यह क्षमता आने वाले दशकों में तापमान में वृद्धि के साथ और भी कम हो जाएगी।

  • जैसा कि लगभग 45% वैश्विक आबादी जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्रों में निवास कर रही है।

  • यदि तापमान में वैश्विक वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक काल से 1.5°C के भीतर बनाए रखने के लिये पर्याप्त प्रयास किये जाते हैं तो भी जलवायु परिवर्तन जनित कई आपदाओं के अगले दो दशकों के दौरान उभरने की संभावना है। 1.5°C सीमा के उल्लंघन की स्थिति में ‘अतिरिक्त गंभीर प्रभाव’ (Additional Severe Impacts) पैदा होने की संभावना है।

  • यदि विश्व समुदाय कार्बन उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों को प्राप्त कर लेता है तो भी इस सदी के अंत तक समुद्र का जल स्तर 44 सेमी. से 76 सेमी. तक बढ़ जाएगा। किंतु उच्च उत्सर्जन की स्थिति में यदि ग्लेशियर अधिक तेज़ी से पिघलते हैं, तो समुद्र का जल स्तर इस सदी के अंत तक 2 मी. और वर्ष 2150 तक 5 मी. तक बढ़ सकता है।



स्वास्थ्य प्रभावों का आकलन

  • आई.पी.सी.सी. ने इस रिपोर्ट में पहली बार जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य प्रभावों पर ध्यान दिया है। शोधकर्ताओं के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से वेक्टरजनित और जलजनित बीमारियों, जैसे- मलेरिया एवं डेंगू का खतरा बढ़ रहा है। इन बीमारियों के प्रति एशिया के उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र विशेष रूप से संवेदनशील है। 

  • तापमान में वृद्धि के साथ श्वसन संबंधी बीमारियों, संक्रामक रोगों, मधुमेह एवं शिशु मृत्यु दर में वृद्धि की संभावना है। हीटवेव, बाढ़ एवं सूखे जैसी चरम मौसमी घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति से कुपोषण, एलर्जी संबंधी बीमारियों और मानसिक विकारों में वृद्धि हो रही है।



जल संकट की चुनौती

  • तापमान में 2°C की वृद्धि होने की स्थिति में विश्व की लगभग 300 करोड़ आबादी गंभीर जल समस्या से ग्रस्त हो जाएगी जबकि 4°C की वृद्धि होने पर यह आँकड़ा 400 करोड़ को पार कर सकता है।

  • रिपोर्ट का अनुमान है कि दक्षिण अमेरिका में ऐसे दिनों की संख्या कहीं ज्यादा बढ़ जाएगी जब लोगों को जल की कमी का सामना करना पड़ेगा। साथ ही, दक्षिण एशिया में भारत जैसे देशों के लिये भी यह समस्या अधिक गंभीर होगी जहाँ एक बड़ी जनसंख्या जल संबंधी आवश्यकताओं के लिये ग्लेशियरों पर निर्भर है।

  • बढ़ते तापमान के कारण इन ग्लेशियरों के पिघलने की दर पूर्व की तुलना में कहीं अधिक तेज होती जा रही है, परिणामस्वरुप जल की उपलब्धता में कमी आ रही है। 



कृषि एवं खाद्य संकट

  • जलवायु परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रभाव कृषि एवं खाद्य उत्पादन पर भी पड़ेगा। बढ़ते तापमान के कारण भारत सहित अनेक अफ्रीकी देशों में खाद्य उत्पादन पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। हालाँकि, कुछ उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता पर सकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिला है किंतु यह घटती उत्पादकता की क्षतिपूर्ति के लिये अपर्याप्त है।

  • यदि सदी के अंत तक तापमान में 1.6°C से कम की वृद्धि होती है तो भी लगभग 8% कृषि भूमि खाद्य उत्पादन के लिये अनुपयुक्त हो जाएगी। 

  • तापमान वृद्धि का प्रभाव पशु एवं मत्स्य पालन पर भी पड़ेगा। एक अनुमान के अनुसार अफ्रीका के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में सदी के अंत तक समुद्री मत्स्य उत्पादन में 41% तक की कमी हो सकती है।

  • अफ्रीका में निवास करने वाले लगभग एक-तिहाई लोगों के प्रोटीन का मुख्य स्रोत मछलियाँ हैं। इसके अतिरिक्त, यह 1.23 करोड़ आबादी की आजीविका का भी प्रमुख स्रोत है। यदि बढ़ते तापमान के कारण इसके उत्पादन में गिरावट आती है तो अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में कुपोषण के शिकार लोगों में कई गुना वृद्धि होगी।

  • भुखमरी का सर्वाधिक प्रभाव अफ्रीका, दक्षिण एशिया और मध्य अमेरिका पर पड़ेगा। अनुमान है कि वर्ष 2050 तक जलवायु परिवर्तन के कारण 18.3 करोड़ लोग कुपोषण का शिकार होंगें। 




भारत पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव :


क्षेत्रीय प्रभावों का आकलन

  • रिपोर्ट में पहली बार जलवायु परिवर्तन के क्षेत्रीय प्रभावों का आकलन किया गया है। इसमें दुनिया और भारत के बड़े शहरों के जोखिमों एवं उनकी कमजोरियों का आकलन शामिल है।

  • इस रिपोर्ट में भारत की पहचान जलवायु परिवर्तन के प्रति एक संवेदनशील हॉटस्पॉट के रूप में की गयी है, जिसमें कई क्षेत्र और महत्त्वपूर्ण शहर जलवायु आपदा जनित गंभीर जोखिमों, जैसे- बाढ़, समुद्र जल स्तर में वृद्धि, लू, चक्रवात आदि का सामना कर रहे हैं।

  • उदाहरण स्वरुप मुंबई में समुद्र स्तर में वृद्धि एवं बाढ़ का उच्च जोखिम, जबकि अहमदाबाद में ‘अर्बन हीट आइलैंड’ का गंभीर खतरा बताया गया है। इसके अतिरिक्त चेन्नई, भुवनेश्वर, पटना और लखनऊ सहित कई शहरों में गर्मी एवं उमस खतरनाक स्तर के करीब पहुँच रही है। ‘अर्बन हीट आइलैंड’ उस शहरी या महानगरीय क्षेत्र को कहते हैं जो मानवीय गतिविधियों के कारण अपने आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक गर्म होता है।



समुद्र स्तर में वृद्धि

  • इस सदी के मध्य तक भारत में प्रतिवर्ष लगभग 35 मिलियन लोग तटीय बाढ़ का सामना कर सकते हैं। यदि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण नहीं लगाया गया तो सदी के अंत तक यह संख्या 45 से 50 मिलियन तक पहुँच सकती है।

  • आई.पी.सी.सी. ने चेतावनी दी है कि अकेले मुंबई के समुद्र स्तर में वृद्धि से वर्ष 2050 तक 162 अरब डॉलर वार्षिक की क्षति हो सकती है।



वेट-बल्ब तापमान

  • वर्तमान में भारत में वेट-बल्ब तापमान (Wet-Bulb Temperatures) शायद ही कभी 31°C से अधिक हुआ है। देश के अधिकांश हिस्सों में अधिकतम वेट-बल्ब तापमान 25-30°C है। 

  • किंतु आगामी वर्षों में कार्बन उत्सर्जन में कटौती किये जाने के बावजूद उत्तरी और तटीय भारत के कई हिस्से सदी के अंत में 31°C से अधिक के खतरनाक वेट-बल्ब तापमान तक पहुँच जाएंगे। 

  • यदि उत्सर्जन में वृद्धि जारी रहती है, तो भारत के अधिकांश हिस्सों में वेट-बल्ब तापमान 35°C की असहनीय सीमा तक पहुँच जाएगा या उससे अधिक हो जाएगा।

  • मनुष्य को जब गर्मी लगती है तो वह पसीने से स्वयं को ठंडा कर लेता है। हालाँकि, यदि आर्द्रता बहुत अधिक हो जाती है, तो पसीना काम नहीं करता है और अति ताप के जोखिम की स्थिति उत्पन्न होती है। वेट-बल्ब तापमान का उपयोग गर्मी और आर्द्रता दोनों के मापन के लिये किया जाता है, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि स्थितियाँ मनुष्यों के लिए सुरक्षित हैं या नहीं। वेट-बल्ब तापमान की उच्चतम सीमा सामान्यतः 35°C मानी जाती है।



कृषि उत्पादन में कमी

  • जलवायु परिवर्तन से देश के खाद्यान्न उत्पादन पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की चेतावनी दी गई है। यदि पूर्व-औद्योगिक स्तर से वैश्विक तापन में 1°C  से 4°C तक वृद्धि होती है तो भारत में चावल का उत्पादन 10% के स्थान पर 30% तक घट सकता है। इसके अतिरिक्त मक्के का उत्पादन 25% की तुलना में 70% तक कम हो जाएगा।




इस रिपोर्ट में आई.पी.सी.सी. ने जलवायु परिवर्तन के गंभीर नकारात्मक प्रभावों का उल्लेख किया है। भारत का विश्वास है कि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक सामूहिक कार्रवाई समस्या (Global Collective Action Problem) है जिसका समाधान केवल अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और बहुपक्षवाद (Multilateralism) से ही संभव है।

आई.पी.सी.सी. की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में विश्व समुदाय को यह चेतावनी जारी की गई है कि 2°C का लक्ष्य विनाशकारी हो सकता है। विश्व को सामूहिक रूप से तापमान वृद्धि को 1.5°C के भीतर रखने के लिये और अधिक महत्वाकांक्षी कार्रवाई की तीव्र आवश्यकता है।