Thursday, June 30, 2022

एरोपॉनिक तकनीक से कृषि (समीक्षा)

Sources - Google


हाल ही में, विषाणु रोग से मुक्त आलू बीज उत्पादन के लिये एरोपॉनिक पद्धति के उपयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से ग्वालियर में एक आलू बीज उत्पादन केंद्र स्थापित किये जाने की योजना है। इस तकनीक का विकास भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् और केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, शिमला स्थित प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है। 


एरोपॉनिक पद्धति

  • फसलों को रोगों एवं कीटों से बचाने तथा बढ़ते प्रदूषण एवं सिमटती कृषि भूमि की चुनौतियों से निपटने के लिये कृषि वैज्ञानिकों द्वारा निरंतर अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों का विकास किया जा रहा है। इन्हीं अभिनव कृषि तकनीकों में एरोपॉनिक पद्धति प्रमुखता से शामिल है।यह पद्धति मिट्टी के उपयोग के बिना हवा या पानी की सूक्ष्म बूंदों (Mist) के वातावरण में पौधों को उगाने की प्रक्रिया है। 
  • इस पद्धति में पोषक तत्त्वों का छिड़काव मिस्टिंग के रूप में जड़ों में किया जाता है।
  • इस पद्धति में खेतों की जुताई, गुड़ाई और निराई जैसी परंपरागत प्रक्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती है।
  • इस विधि में पौधे का ऊपरी भाग खुली हवा व प्रकाश के संपर्क में रहता है। एक पौधे से औसत 35-60 मिनिकंद प्राप्त किये जाते हैं। इस पद्धति में मिट्टी का उपयोग नहीं किया जाता है, इस प्रकार मिट्टी से जुड़े रोग भी फसलों में प्रसारित नहीं होते हैं।


अन्य पद्धति से भिन्नता

  • यह पद्धति पारंपरिक रूप से प्रचलित हाइड्रोपोनिक्स, एक्वापॉनिक्स और इन-विट्रो (प्लांट टिशू कल्चर) से भिन्न है। 
  • विदित है कि हाइड्रोपॉनिक्स पद्धति में पौधों की वृद्धि के लिये आवश्यक खनिजों की आपूर्ति के लिये माध्यम के रूप में तरल पोषक तत्त्व सॉल्यूशन का उपयोग होता है।एक्वापॉनिक्स में भी पानी और मछली के कचरे का उपयोग होता है। जबकि, एरोपॉनिक्स पद्धति में पौधों की वृद्धि के लिये किसी बाह्य तत्त्व का प्रयोग नहीं किया जाता है।

Wednesday, June 29, 2022

भारत की आर्कटिक नीति (समीक्षा)


Source : Wikipedia


भारत ने जलवायु परिवर्तन से निपटने तथा पर्यावरण की रक्षा करने के उद्देश्य से नई आर्कटिक नीति का अनावरण किया है। नीति का शीर्षक ‘भारत और आर्कटिक: सतत विकास के लिये साझेदारी का निर्माण’ है। 


आर्कटिक क्षेत्र तथा भारत

  • 66.5 ˚ उत्तरी अक्षांश से उत्तर में स्थित क्षेत्र को आर्कटिक क्षेत्र माना जाता है, जिसमें आर्कटिक महासागर शामिल है और इसका केंद्र उत्तरी ध्रुव है। आर्कटिक क्षेत्र पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र के वायुमंडलीय, समुद्र विज्ञान और जैव-भू-रासायनिक चक्रों को प्रभावित करता है।
  • इस क्षेत्र के साथ भारत के संबंधों की शुरुआत वर्ष 1920 से हुई जब भारत ने पेरिस में ‘स्वालबार्ड संधि’ पर हस्ताक्षर किये। वर्ष 2007 में इस क्षेत्र में भारत ने अपने पहले अनुसंधान कार्यक्रम की शुरुआत की। इसी क्रम में भारत ने वर्ष 2008 में इस क्षेत्र में भारतीय अनुसंधान स्टेशन ‘हिमाद्रि’ स्थापित किया। 
  • वर्ष 2013 से भारत आर्कटिक परिषद् में एक पर्वेक्षक राष्ट्र रहा है। आर्कटिक परिषद् में आठ आर्कटिक देश- कनाडा, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, रूस, स्वीडन और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।
  • वर्ष 2014 और 2016 में कोंग्सफजॉर्डन में भारत की पहली मल्टी-सेंसर मूरेड वेधशाला और एनवाई-एलेसंड स्थित ग्रुवेबडेट में सबसे उत्तरी वायुमंडलीय प्रयोगशाला को आर्कटिक क्षेत्र में लॉन्च किया गया था। 
  • वर्ष 2022 तक भारत ने आर्कटिक क्षेत्र में तेरह अनुसंधान कार्यक्रमों का सफलतापूर्वक संचालन किया है।


नई आर्कटिक नीति के मुख्य स्तंभ :


विज्ञान एवं अनुसंधान  

  • विज्ञान एवं अनुसंधान के तहत भारत के अग्रलिखित उद्देश्य हैं:
  • परिष्कृत पर्यवेक्षण और विविध यंत्रों के साथ नॉर्वे में एनवाई-एलेसंड हिमाद्रि में मौजूदा अनुसंधान बेस को सुदृढ बनाना, वहाँ उपस्थिति बनाए रखना और आर्कटिक में अतिरिक्त अनुसंधान स्टेशन स्थापित करना।
  • सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, नृवैज्ञानिक और पारंपरिक ज्ञान के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय आर्कटिक प्राथमिकताओं के अनुरूप अनुसंधान को प्रोत्साहित करना।
  • राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्कटिक से संबंधित अनुसंधान के लिये विशेष संस्थागत वित्तपोषण सहयोग की स्थापना करना।
  • प्रवासी वन्यजीव प्रजातियों के संरक्षण संबंधी अभिसमय के एक पक्षकार के रूप में भारत, आर्कटिक जैव विविधता पर अनुसंधान और संरक्षण में आर्कटिक राष्ट्रों के साथ मिलकर कार्य करेगा।
  • आर्कटिक क्षेत्र में कम डिजिटल कनेक्टिविटी पाई जाई जाती है। दूरस्थ क्षेत्रों में प्रभावी उपग्रह सक्षम संचार और डिजिटल कनेक्टिविटी प्रदान करने की भारत की विशेषज्ञता इस कमी को पूरा करने में मदद मिलेगी।


जलवायु और पर्यावरण संरक्षण

  • आर्कटिक क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन, भारत के वैज्ञानिक अनुसंधान का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के अध्ययन से विश्व के अन्य भागों में प्रतिक्रिया तंत्र में सुधार हो सकता है। भारत की नई आर्कटिक नीति निम्नलिखित उद्देश्यों के साथ बनाई गई है-
  1. सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये आर्कटिक क्षेत्र के साथ भारत के उत्कृष्ट आदान-प्रदान को बढ़ावा देना। 
  2. आर्कटिक जैव-विविधता और सूक्ष्म जीव विविधता को संरक्षित करने के लिये पारिस्थितकी तंत्र के मूल्यों, समुद्री संरक्षित क्षेत्रों और पारंपरिक ज्ञान तंत्र से संबंधित अनुसंधान में भाग लेना।
  3. आर्कटिक में मानव जाति और पर्माफ्रॉस्ट स्रोतों से मीथेन का उत्सर्जन, ब्लैक कार्बन उत्सर्जन, महासागरों में माइक्रो-प्लास्टिक, समुद्री कचरा, समुद्री स्तनधारी जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव और अन्य के संबंध में पर्यावरणीय प्रबंधन के लिये योगदान करना।


आर्थिक और मानव विकास

  • आर्कटिक क्षेत्र के आर्थिक विकास के लिये भारत का दृष्टिकोण संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्यों द्वारा निर्देशित है। भारत आर्कटिक क्षेत्र में सतत व्यापार एवं विकास का समर्थन करता है।
  • आर्कटिक क्षेत्र में ऊर्जा, खनिज व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के प्रचुर भंडार उपलब्ध हैं। साथ ही यह पृथ्वी पर बचे हुए हाइड्रोकार्बन के लिये सबसे बड़ा अज्ञात संभावित क्षेत्र है। भारत नई नीति के माध्यम से आर्कटिक क्षेत्र में सजीव और निर्जीव संसाधनों के सतत दोहन में भागीदारी को मज़बूत करने के लिये आर्कटिक देशों का सहयोग करना चाहता है। 
  • साथ ही, भारत इस क्षेत्र में ई-कॉमर्स को बढ़ावा देने के लिये आर्कटिक देशों के साथ डिजिटल भागीदारी करना चाहता है।
  • भारत का लक्ष्य इस क्रायोस्फेरिक क्षेत्र में पूर्णरूप से सुरक्षित बीज भंडारण सुविधाएँ प्रदान करना भी है।
  • भारत को डिजिटाइजेशन और नवाचारों का उपयोग कर कम लागत वाले सामाजिक नेटवर्क के निर्माण में पर्याप्त अनुभव है। इस विशेषज्ञता का उपयोग आर्कटिक देशों के साथ मूल निवासियों और अन्य समुदायों के शासन और कल्याण का लक्ष्य भी निर्धारित है।
  • भारत इस नीति के माध्यम से न केवल इस क्षेत्र में सतत पर्यटन में अपनी भागीदारी को प्रोत्साहित करेगा बल्कि इस क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाएँ और प्रौद्योगिकी समाधान भी प्रदान करेगा।
परिवहन एवं कनेक्टिविटी
  • वर्तमान में भारत नाविकों की आपूर्ति (वैश्विक मांग का लगभग 10%) करने वाले देशों की सूची में तीसरे स्थान पर है। भारत नई नीति के तहत आर्कटिक में समुद्री मानव संसाधन की बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने में योगदान देगा।
  • यह नीति आर्कटिक पारगमन में कार्यरत जहाजों के चालक दल के रूप में भारतीय नाविकों के लिये अवसरों को बढ़ावा देगी।


शासन एवं अंतर्राष्ट्रीय सहयोग

  • आर्कटिक क्षेत्र में संबंधित संप्रभु अधिकार क्षेत्र वाले राष्ट्रों के साथ-साथ राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र भी शामिल होते हैं। यह क्षेत्र राष्ट्रीय घरेलू कानून, द्विपक्षीय करारों, वैश्विक संधियों और मूल निवासियों के अभिसमयों एवं प्रथागत कानूनों से शासित है।
  • भारत की नई नीति का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय संधियों और करारों के अनुसार आर्कटिक क्षेत्र में सुरक्षा और स्थिरता को बढ़ावा देना है।
  • नई नीति के माध्यम से इस क्षेत्र में सभी हितधारकों के साथ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और सहभागिता का अनुसरण करते हुए क्षेत्र से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय संधि ढांचे में सक्रिय रूप से भाग लेना भी इसका एक उद्देश्य है।


राष्ट्रीय क्षमता संवर्धन

  • इस नीति का उद्देश्य पृथ्वी विज्ञान, जैविक विज्ञान, भू-विज्ञान, जलवायु परिवर्तन और आर्कटिक से संबंधित अंतरिक्ष से संबंधी कार्यक्रमों के क्षेत्रों में भारतीय विश्वविद्यालयों में अनुसंधान क्षमताओं को बढ़ावा देना है।
  • इसके द्वारा अनुसंधान के साथ ही हिम-श्रेणी के मानकों के जहाजों के निर्माण में स्वदेशी क्षमता के निर्माण पर भी बल दिया जाएगा।


गोवा स्थित राष्ट्रीय ध्रुवीय और महासागर अनुसंधान केंद्र  (NCPOR), पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संस्थान है। यह भारत के ध्रुवीय अनुसंधान कार्यक्रम के लिये नोडल संस्थान है, जिसमें आर्कटिक क्षेत्र से संबंधित अध्ययन किये जाते हैं।


भारत की आर्कटिक नीति को लागू करने में अकादमिक, शोध समुदाय और उद्योग सहित कई हितधारक शामिल होंगे। इससे समय-सीमा का निर्धारण होगा, संबंधित गतिविधियों को प्राथमिकता मिलेगी और अपेक्षित संसाधनों का आवंटन सुनिश्चित होगा।

Monday, June 27, 2022

Empowering women is the key to control the population growth (Critical Analysis)

Source - Google

India is set to become the most populous nation in 2027, surpassing China, according to an estimation by the United Nations Department of Economic and Social Affairs. India’s population has ballooned from 555.2 million in 1970 to 1,366.4 million in 2017.

There are multiple causes of population growth in India such as child marriage and multi marriage system, religious superstitions, illiteracy and unawareness, poverty etc. However, they are in one way or the other linked to the poor condition of women in the nation.


Thus empowering women can play a crucial role in controlling the population growth - 

  • Women are at times financially weak to pay for needed family planning and health services. Access to and control over productive resources will result in increased voice, agency and meaningful participation in decision-making at all levels from family planning to the time of conceiving.

  • The failure of family planning is directly related to large-scale illiteracy that also contributes to the early age of marriage, low status of women, high child-mortality rate etc. They are least aware of the various ways to control population, usage of contraceptives and birth control measures.

  • Uneducated families cannot grasp the issues and problems caused by the increasing population rate. Education has a transformative impact on girls. Educated girls tend to work more, earn more, expand their horizons, marry and start having children later with fewer children.

  • Fertility rates are high because of misinformation about side-effects of contraceptives, lack of knowledge about the benefits of small families, and religious or male opposition to contraception.

  • Any woman with multiple children spends most of her life as a mother and wife. She cannot play any meaningful role in her community and society until she is able to limit her family to a proper size. Family planning will not only improve family welfare but also contribute to achieving social prosperity and personal happiness.

  • It is also crucial to sensitize men and boys at a young age, so they become an integral part in bringing about a transformation of women empowerment in Indian society. When men start respecting women and accepting them as equals, a lot of gender-based inequalities will reduce considerably.


The unbridled growth of population is a problem that our country needs to overcome. The government, NGOs and the people of society have to work together to solve the problem of overpopulation in our country. India, however, needs to put more efforts on empowering its women who can help the country curb the growth of its population. As also mentioned by Nehru, to awaken the people, first women need to be awakened, because once a woman has been awakened then the whole nation and family get awakened with her.

Saturday, June 25, 2022

Agro-Based Food Processing Industries of North-West India (Critical Analysis)


Agro-based food processing industry, aptly recognised as ‘sunrise industry’, is described as one that adds value to agricultural raw materials. This value addition converts the raw agricultural products into marketable, easy-to-use or edible products like corn flakes, chips, ready to serve drinks, etc.

The Indian food processing industry accounts for 32% of the country’s total food market. It is one of the largest industries in India and is ranked fifth in terms of production, consumption, export and expected growth.However, the North-West India showcases a better-developed agro-based food processing industry. The factors for this localisation are as follows:


▪️ Geography:

  • The region is blessed with a diverse agro-climatic zones, fertile soil and undulating plains. These support a multitude of crops, vegetables and fruits round the year which provide ample raw material.

▪️ Raw material:

  • Availability of diverse raw materials viz. cereals, fruits, vegetables and livestock provide attractive base for food processing industry in this region. For instance, Punjab accounts for 17% of rice and 11% of wheat production of India. This region also has the distinction of having the largest population of livestock and largest producer of milk in India.

▪️ Infrastructure: 

  • Well-connected transportation network, subsidised electricity, irrigation facilities (such as Indira Gandhi canal and Bhakhra Nangal) and ample warehousing and storage facilities contribute to flourishing agro-based industries in the region.

▪️ Agricultural marketing:

  • This region has well-developed agri-export zones, market yards, organised APMCs and mandis, etc. which have provided a conducive environment for the establishment of agro-based industries.

▪️ Socio-economic status: 

  • The population of the region has good literacy rate, including financial literacy, and enjoys an efficient banking network. This helps channel easy availability of credit and capital investment.

▪️ Policy support: 

  • The Punjab government operates an agricultural mega project policy to facilitate investment in the food processing sector. Additionally, large landholdings, single window clearance, permission to set up private sub e-markets, amendment to APMC Act, etc. have enabled agro-based industries in this region to flourish.

▪️ Capacity building and R&D: 

  • Capacity building of the manpower in food processing sector in India is spearheaded by the National Institute of Food Technology Entrepreneurship and Management which is located in Sonepat, Haryana. Likewise, a prominent institution for research and development to improve agricultural productivity and business opportunities is the Indian Institute of Maize Research located in Ludhiana, Punjab.


The initiatives taken at the Union level like permitting 100% FDI through the automatic route in food processing sector and Scheme for Mega Food Parks under the Ministry of Food Processing Industries are conducive steps. However, the challenges for the industry remain such as fluctuations in the availability of raw material due to climate change, inadequate implementation of the APMC Act, multiplicity of ministries and laws to regulate food value chain, etc.

Friday, June 17, 2022

सिरुमलाई पर्वत श्रृंखला में जैव विविधता पार्क (समीक्षा)

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हाल ही में, तमिलनाडु के डिंडीगुल ज़िले में सिरुमलाई पहाड़ी क्षेत्र में एक अद्वितीय जैव विविधता पार्क का विकास किया जा रहा है। 


प्रमुख बिंदु :

  • इस जैव विविधता पार्क को स्थापित करने का मुख्य उद्देश्य पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र के सतत प्रबंधन के लिये जागरूकता पैदा करना है। साथ ही, जनता के बीच सांस्कृतिक, शैक्षिक एवं जैव विविधता मूल्यों को विकसित करना है।

  • विदित है कि राज्य के वन मंत्री ने 2019-22 के दौरान विधान सभा में पार्क के विकास के लिये 5 करोड़ रुपये की राशि स्वीकृत की है।



सिरुमलाई पहाड़ी :

  • यह पहाड़ी डिंडीगुल ज़िले में 60,000 एकड़ के क्षेत्र में विस्तृत है। ये डिंडीगुल शहर से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर, समुद्र तल से 400 से 1,650 मीटर की ऊँचाई पर स्थित हैं।

  • निचली पहाड़ी श्रृंखला में अत्यधिक अशांत झाड़ीदार वन पाए जाते हैं जबकि मध्य पहाड़ी श्रृंखला पर उष्णकटिबंधीय मिश्रित शुष्क पर्णपाती वन तथा उच्च पहाड़ी श्रृंखला पर अर्ध सदाबहार वन पाए जाते हैं। इस पहाड़ी श्रृंखला में कई दुर्लभ और स्थानिक पौधों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

  • इस क्षेत्र में गौर, तेंदुआ, चित्तीदार हिरण, माउस हिरण, सियार, स्लोथ बियर, जंगली सूअर, भारतीय पैंगोलिन तथा सरीसृप की कई प्रजातियां पाई जाती है।



क्या है जैव विविधता पार्क :

  • जैव विविधता पार्क वन का एक अनूठा परिदृश्य है जहाँ एक क्षेत्र में जैविक समुदायों के रूप में देशी पौधों और वन्य जीवों की प्रजातियों के पारिस्थितिक संयोजन को स्थापित किया जाता है। यह पार्क एक प्रकृति आरक्षित क्षेत्र है जो प्राकृतिक विरासत को संरक्षित करता है।



जैव विविधता पार्क के उद्देश्य :

  • पर्यटन संभावनाओं में सुधार के साथ-साथ दुर्लभ प्रजातियों के पेड़ों, पौधों और झाड़ियों के संरक्षण में सहायक सिद्ध होना।

  • जैव विविधता और इसके महत्त्व के बारे में वन हितधारकों, जनता एवं छात्र समुदाय के मध्य जागरूकता को बढ़ावा देना।

  • दुर्लभ एवं स्थानिक प्रजातियों के संरक्षण हेतु जीन बैंक को बनाया जाना।

  • ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की समस्याओं को कम करने के लिये स्वदेशी प्रजातियों के साथ कार्बन सिंक को बनाना।

  • स्थानीय समुदायों के लिये आजीविका के अवसर पैदा करना।

Monday, June 13, 2022

Eco sensitive zones (Critical Analysis)

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P.C.-Dhyeyaias


The Supreme Court directed that every protected forest, national park and wildlife sanctuary across the country should have a mandatory eco-sensitive zone (ESZ) of a minimum one km starting from their demarcated boundaries.


What did the Court say?

  • The State also has to act as a trustee for the benefit of the general public in relation to the natural resources so that sustainable development could be achieved in the long term.

  • The court held that in case any national park or protected forest already has a buffer zone extending beyond one km, that would prevail.

  • In case the question of the extent of buffer zone was pending a statutory decision, then the court’s direction to maintain the one-km safety zone would be applicable until a final decision is arrived at under the law.

  • The court has also directed each State and the Union Territory to make a list of subsisting structures within the ESZs and submit reports to the apex court in three months.


What are ‘Eco-sensitive zones’? 

  • Eco-Sensitive Zone means the fragile area that exists within 10 kilometres of protected areas like National Parks and Wildlife Sanctuaries.

  • The width of the ESZ and type of regulation may vary from protected area to area.

  • However, as a general principle, the width of the ESZ could go up to 10 kms around the protected area.

  • The purpose of marking an Eco-Sensitive Zone is to create a kind of shock-absorber around the protected areas.

  • The ESZ around protected areas are declared by the Ministry of Environment Forests and Climate Change (MoEF&CC) under the Environment (Protection) Act, 1986.


Prohibited activities -

  • Commercial mining,

  • Stone quarrying,

  • Crushing units,

  • Tourism activities like flying over protected areas in an aircraft or hot air balloon,

  • Setting up industries that cause pollution,

  • Establishment of hydro-electric projects,

  • Commercial use of firewood,

  • Solid waste disposal or wastewater disposal, etc.


Permitted activities -

  • Ongoing agriculture and horticulture practices by local communities,

  • Rainwater harvesting,

  • Organic farming,

  • Adoption of green technology and

  • Use of renewable energy sources.


Significance of ESZ -

  • The basic aim is to regulate certain activities around National Parks and Wildlife Sanctuaries so as to minimise the negative impacts of such activities on the fragile ecosystem encompassing the protected areas.

  • These areas act as “shock absorbers” to the protected areas by regulating and managing the activities around such areas.

  • These zones act as a transition zone from areas of high protection to those involving lesser protection.

  • These areas help in minimising man-animal conflict.

  • The protected areas are based on the core and buffer model of management, through which local area communities are also protected and benefitted.

Thursday, June 09, 2022

ग्रीन मफलर (समीक्षा)

P.C. - Google


ग्रीन मफलर अधिक आबादी वाले या ध्वनि प्रदूषण वाले क्षेत्र जैसे सड़कों के किनारे, औद्योगिक क्षेत्रों और राजमार्गों के आस-पास के रिहायशी इलाकों मे 4-6 पंक्तियों में वृक्षारोपण कर ध्वनि प्रदूषण को कम करने की एक तकनीक है ताकि घने पेड़ ध्वनि प्रदूषण को कम कर सके क्योंकि पेड़ ध्वनि को फिल्टर करते हैं और इसे नागरिकों तक पहुँचने से रोकते हैंl

इसके अलावा ग्रीन मफलर आंतरिक दहन इंजन के निकास द्वारा उत्सर्जित ध्वनि की मात्रा को कम करने के लिए प्रयुक्त एक उपकरण भी हैl


ग्रीन मफलर योजना :

  • इस योजना के अंतर्गत घर या रिहायसी इलाकों के आस-पास ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए अशोक और नीम के पौधे लगाये जाते हैंl


क्या आप जानते हैं कि पेड़ों को ध्वनि प्रतिरोधक क्यों कहा जाता है?

  • वे ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करते हैं। यहां तक कि शहरी ध्वनि प्रदूषण भी पत्थर की दीवारों की तरह पेड़ों की झुरमुट में दब जाते हैंl

  • पौधों को ध्वनि अवरोधक के रूप में उपयोग करने का एक फायदा यह है कि पौधे लोगों को परेशान करने वाले उच्च आवृत्तियों के ध्वनियों को भी आसानी से रोकते हैंl

  • चौड़े पत्ते वाले सदाबहार छोटे वृक्ष भी ध्वनि प्रदूषण से संरक्षण प्रदान करते हैं अतः इन वृक्षों का रोपण काफी लाभदायक हैl पेड़ अपनी शाखाओं और पत्तों के माध्यम से ध्वनि तरंगों को अवशोषित करते हैं।

  • ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए दो पेड़ो के बीच काफी कम जगह या न के बराबर जगह छोड़कर वृक्षारोपण करना चाहिएl

  • वास्तव में नरम जमीन ध्वनि का अच्छा अवशोषक है। अतः कठोर सतहों पर वृक्षारोपण से बचना चाहिएl इसके अलावा, पौधे लगाने से पहले मिट्टी की जुताई करने और मिट्टी की सतह में कार्बनिक पदार्थ के छिड़काव से ध्वनि प्रदूषण को कम करने में मदद मिल सकती हैl

संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग के अंतर्गत आने वाले राष्ट्रीय कृषि और वानिकी केन्द्र के अनुसार पेड़ों और झाड़ियों के द्वारा सही ढंग से निर्मित प्रतिरोधक के माध्यम से लगभग 10 डेसिबल या 50% तक ध्वनि प्रदूषण को कम किया जा सकता हैl


मफलर क्या है?

  • अधिकांश आंतरिक दहन इंजनों में , मफलरों को निकास प्रणाली के भीतर स्थापित किया जाता है। इसे इस तरह से बनाया गया है कि यह ध्वनि के दबाव के कारण उत्पन्न आवाज को कम करने में मदद करता हैl इंजन द्वारा उत्पादित अधिकांश ध्वनि दबाव वाहन से बाहर निकलने के लिए उसी पाइप का उपयोग करते हैं जिसका उपयोग शीत निकास गैसों द्वारा क्रमशः बाहर निकलने वाले मार्ग के रूप में और कक्षों की श्रृंखलाओं द्वारा अवशोषित करने के लिए किया जाता है जो फाइबर ग्लास इन्सुलेशन या गूंजती कक्षों के साथ खड़ी होती है जो सामंजस्यपूर्ण हस्तक्षेप का कारण बनते हैं।इस प्रकार विपरीत ध्वनि तरंग एक-दूसरे को समाप्त कर देते हैंl इसलिए इंजन में ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने वाले तकनीक को मफलर के रूप में जाना जाता है और वृक्षारोपण के माध्यम से ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने की तकनीक को ग्रीन मफलर के रूप में जाना जाता है।

Saturday, June 04, 2022

अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (समीक्षा)




PC - IEA

अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ( International Energy Agency IEA ) , एक अंतर - सरकारी स्वायत्त संगठन है । इसकी स्थापना आर्थिक सहयोग और विकास संगठन ( Organisation of Economic Cooperation and Development- OECD ) फ्रेमवर्क के अनुसार वर्ष 1974 में की गई थी । इसके कार्यों का फोकस मुख्यतः चार मुख्य क्षेत्रों पर होता है : ऊर्जा सुरक्षा , आर्थिक विकास , पर्यावरण जागरूकता और वैश्विक सहभागिता । इसका मुख्यालय ( सचिवालय ) पेरिस , फ्रांस में है ।


 भूमिकाएँ और कार्य : 

  • अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की स्थापना वर्ष 1973 1974 के तेल संकट के दौरान सदस्य देशों के लिए तेल आपूर्ति व्यवधानों का सामना करने में मदद करने के लिए की गयी थी । IEA द्वारा यह भूमिका वर्तमान में भी निभाई जा रही है । अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ( IEA ) के अधिदेश में समय के साथ विस्तार किया गया है । इसके कार्यों में वैश्विक रूप से प्रमुख ऊर्जा रुझानों पर निगाह रखना और उनका विश्लेषण करना , मजबूत ऊर्जा नीतियों को बढ़ावा देना और बहुराष्ट्रीय ऊर्जा प्रौद्योगिकी सहयोग को बढ़ावा देना शामिल किया गया है । 



IEA की संरचना एवं सदस्यता हेतु पात्रता :

  • वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ' में 30 सदस्य देश तथा में आठ सहयोगी देश शामिल हैं । इसकी सदस्यता होने के लिए किसी देश को आर्थिक सहयोग और विकास संगठन ( OECD ) का सदस्य होना अनिवार्य है । हालांकि OECD के सभी सदस्य आईईए के सदस्य नहीं हैं ।



किसी देश को अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का सदस्यता के लिए निम्नलिखित शर्ते पूरा करना आवश्यक है : 

  • देश की सरकार के पास पिछले वर्ष के 90 दिनों में किए गए निवल आयात के बराबर कच्चे तेल और / अथवा उत्पाद भण्डार मौजूद होना चाहिए । भले ही यह भण्डार सरकार के प्रत्यक्ष स्वामित्व में न हो किंतु वैश्विक तेल आपूर्ति में व्यवधान को दूर करने के इसका उपयोग किया जा सकता हो । 

  • देश में राष्ट्रीय तेल खपत को 10 % तक कम करने के लिए एक ' मांग नियंत्रण कार्यक्रम लागू होना चाहिए ।

  • राष्ट्रीय स्तर पर समन्वित आपातकालीन प्रतिक्रिया उपाय ( CERM ) लागू करने के लिए क़ानून और संस्था होनी चाहिए ।

  • मांग किये जाने पर देश की सीमा में कार्यरत सभी तेल कंपनियों द्वारा जानकारी दिए जाने को सुनिश्चित करने हेतु क़ानून और उपाय होने चाहिए ।

  • अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के सामूहिक कार्रवाई में अपने योगदान को सुनिश्चित करने के लिए देश में क़ानून अथवा उपाय होने चाहिए । 



आइईए द्वारा प्रकाशित की जाने वाली रिपोर्ट्स :

  • वैश्विक ऊर्जा और CO2 स्थिति रिपोर्ट •विश्व ऊर्जा आउटलुक

  • विश्व ऊर्जा सांख्यिकी 

  • विश्व ऊर्जा संतुलन

  •  ऊर्जा प्रौद्योगिकी परिप्रेक्ष्य